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________________ 264] [व्याख्याप्रप्तिसूत्र 17. एवं जाव सहस्सारे, नाणत्तं विमाणेसु, लेस्सासु.य / सेसं तं चेव / [17] इसी प्रकार (माहेन्द्र देवलोक से लेकर) यावत् सहस्रार देवलोक तक कहना चाहिए। यहाँ अन्तर विमानों की संख्या और लेश्या के विषय में है / शेष सब कथन पूर्वोक्तवत् है / 18. प्राणय-पाणएसु णं भंते ! कप्पेसु केवतिया विमाणावाससया पन्नत्ता? गोयमा ! चत्तारि विमाणावाससया पन्नत्ता। [18 प्र.] भगवन् ! आनत और प्राणत देवलोकों में कितने सो विमानावास कहे गए हैं ? [18 उ.] गौतम! (मानत-प्राणतकल्पों में) चार सौ विमानावास कहे गए हैं / 19. ते गं भंते ! कि संखेज्ज० पुच्छा। गोयमा ! संखेज्जविस्थडा वि, असंखेन्जवित्थडा वि / एवं संखेजवित्थडेसु तिन्नि गमगा जहा सहस्सारे / असंखेज्जवित्थडेसु उववज्जतेसु य चयंतेसु य एवं चेव संखेज्जा भाणियव्वा / पन्नत्तेसु असंखेज्जा, नवरं नोइंदियोवउत्ता, अणंतरोववन्तगा, अणंतरोगाढगा, अणंतराहारगा, अणंतरपज्जत्तगा य, एएसि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा पन्नत्ता / सेसा असंखेज्जा भाणियव्वा / [19 प्र.] भगवन् ! वे (विमानावास) संख्यात-योजन विस्तृत हैं या असंख्यात-योजन विस्तृत ? [19 उ.] गौतम ! वे संख्यात योजन विस्तृत भी हैं और असंख्यात योजन विस्तृत भी हैं / संख्यात योजन विस्तार वाले विमानावासों के विषय में सहस्रार देवलोक के समान तीन पालापक कहने चाहिए। असंख्यात योजन विस्तार वाले विमानों में उत्पाद और च्यवन के विषय में 'संख्यात' कहना चाहिए एवं 'सत्ता' में असंख्यात कहना चाहिए। इतना विशेष है कि नोइन्द्रियोपयुक्त (मन के उपयोग वाले) अनन्तरोपपन्नक, अनन्त रावगाढ, अनन्तराहारक और अनन्तर-पर्याप्तक, ये पांच जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात कहे गए हैं। शेष (इनके अतिरिक्त अन्य सब) असंख्यात कहने चाहिए। 20. आरणऽच्चुएसु एवं चेव जहा प्राणय-पाणलेसु नाणत्तं विमाणेसु / [20] जिस प्रकार प्रानत और प्राणत के विषय में कहा, उसी प्रकार पारण और अच्युत कल्प के विषय में भी कहना चाहिए। विमानों की संख्या में विभिन्नता है। 21. एवं गेवेज्जगा वि। [21] इसी प्रकार नौ ग्रेवेयक देवलोकों के विषय में भी कहना चाहिए / 22. कति णं भंते ! अणुत्तरविमाणा पन्नत्ता? गोयमा! पंच अणुत्तरविमाणा पन्नत्ता / {22 प्र.] भगवन् ! अनुत्तर विमान कितने कहे गए हैं ? [22 उ.] गौतम ! अनुत्तर विमान पांच कहे गए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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