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________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 5] [391 22. देवे णं भंते ! महिड्डीए जाव महेसवखे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू तिरियपध्वतं जाव पल्लंघेत्तए वा ? हता, पभू। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। / / चोइसमे सए : पंचमो उद्देसनो समत्तो // 14.5 // [22 प्र. भगवन् ! क्या महद्धिक यावत् महासुख बाला देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके तिरछे पर्वत को या तिरछी भीत को (एक बार) उल्लंघन एवं (बार-बार) प्रलंघन करने में समर्थ है ? / 22 उ.] हाँ, समर्थ है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है--यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन- महद्धिक देव का उल्लंघन-सामर्थ्य- बाह्य (भवधारणीय शरीर से अतिरिक्त) पुद्गलों को ग्रहण किये बिना कोई भी महद्धिक देव मार्ग में आने वाले तिरछे पर्वत या पर्वतखण्ड अथवा भींत आदि का उल्लंघन या प्रलंघन नहीं कर सकता। बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके ही उन्हें उल्लंघन-प्रलंघन कर सकता है / ' ____ कठिन शब्दार्थ-महेसबखे–महासौख्यसम्पन्न / बाहिरए पोग्गले-भवधारणीय शरीर के अतिरिक्त बाह्य पुद्गलों को। अपरियाइत्ता-बिना ग्रह्ण किये। उल्लंघेत्तए-एक वार लांघने में / पल्लंघत्तए--- बार-बार लांघने में, पार करने में। // चौदहवां शतक : पंचम उद्देशक समाप्त // 1. भगवती. अ. पत्ति, पत्र 643-644 2. (क) वही, अ. वृत्ति, पत्र 644 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2319 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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