________________ बारहवां शतक : उद्देशक 10] ___ [231 [24 प्र.] भगवन् ! अवेयकविमान प्रात्म(सद्रूप है ? अथवा वह उससे भिन्न (नोआत्मरूप) है? [24 उ.] गौतम ! इसका कथन रत्नप्रभापृथ्वी के समान करना चाहिए। 25. एवं अणुत्तर विमाणा वि / [25] इसी प्रकार अनुत्तरविमान तक कहना चाहिए / 26. एवं ईसिपब्भारा वि। [26] इसी प्रकार ईपत्प्रारभारा पृथ्वी तक कहना चाहिए। विवेचन - रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईषत्प्रारभारा तक के आत्म-अनात्म विषयक प्रश्नोत्तरप्रस्तुत पाठ सूत्रों (सू. 16 से 26) में रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईपत्प्राग्भारा पृथ्वी तक के आत्मरूप और अनात्मरूप के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। आत्मा-अनात्मा : भावार्थ -प्रस्तुत प्रश्नोत्तरों में आत्मा का अर्थ है—सद्रूप और अनात्मा (अन्य) का अर्थ है -असद्रूप / किसी भी वस्तु को एक साथ सद्रूप और असद्रूप नहीं कहा जा सकता, वैसी स्थिति में वस्तु 'ग्रवक्तव्य' कहलाती है।' रत्नप्रभा आदि पृथ्वी : तीन रूपों में रत्नप्रभापृथ्वी से ईषत्प्रारभारापृथ्वी तक स्व-स्वरूप की अपेक्षा से अर्थात्-अपने वर्णादि पर्यायों से-सद् (प्रात्म) रूप है। पररूप की अर्थात्---परवस्तु की पर्यायों की अपेक्षा से--असद् (अनात्म) रूप है और उभयरूप-स्व-पर-पर्यायों की अपेक्षा से, आत्म (मद) रूप अोर अनात्म (असद् ) रूप, इन दोनों द्वारा एक साथ कहना अशक्य होने से प्रवक्तव्य . है / इस दृष्टि से यहां प्रत्येक पृथ्वी के सद्रूप, असद्रूप और अवक्तव्य, ये तीन भंग होते हैं। आदि8-प्रादिष्ट : भावार्थ -(उसकी अपेक्षा से) कथन किये जाने पर / ' 27. प्राया भंते ! परमाणुपोग्गले, अन्ने परमाणुपोग्गले ? एवं जहा सोहम्मे तहा परमाणुपोग्गले वि भाणियब्वे / [27 प्र. भगवन् ! परमाणु-पुद्गल आत्मरूप (सद्रूप) अथवा वह (परमाणु पुद्गल) अन्य - (अनात्म-प्रसद्रूप) है ? 27 उ.] (गौतम ! जिस प्रकार सौधर्मकल्प (देवलोक) के विषय में कहा है, उसी प्रकार परमाणु-गुद्गल के विषय में कहना चाहिए / 28. [1] आया भंते ! दुपदेसिए खंधे, अन्ने दुपएसिए खंधे ? गोयमा ! दुपएसिए खंधे सिय आया 1, सिय नो आया 2, सिय अवत्तवं प्राया ति य नो आया ति य 3, सिय आया य नो आया य४, सिय आया य अवत्तवं आया ति यनो आया ति य . 5. सिय नो आया य अवत्तव्वं-माया ति य नो आया ति य६ / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 598 2. वही, पत्र 524 3. (क) भगवती. न. वत्ति, पत्र 594 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा.८, पृ. 2118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org