________________ 230 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आत्मरूप, कथंचित् नो-प्रात्मरूप और कथंचित् प्रात्मरूप, एवं नो-प्रात्मरूप (उभयरूप) होने से प्रवक्तव्य है? - [16-2 उ.] गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी अपने स्वरूप से व्यपदिष्ट होने पर प्रात्मरूप (सद्प) है, पररूप से प्रादिष्ट (कथित) होने पर नो-प्रात्मरूप (असद्रूप) है और उभयरूप की विवक्षा से कथन करने पर सद्-असद्रूप होने से प्रवक्तव्य है / इसी कारण से हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से यावत् उसे अवक्तव्य कहा गया है। 20. आया भंते ! सक्करप्पभा पुढवी ? जहा रयणप्पभा पुढवी तहा सक्करप्पना वि। [20 प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी आत्म (सद्) रूप है ? इत्यादि प्रश्न / [20 उ.] जिस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में कथन किया गया है, वैसे ही शर्कराप्रभा के विषय में भी कहना चाहिए / 21 एवं जाव अहेसत्तमा / [21] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी (सप्तम नरक)तक कहना चाहिए / 22. [1] आया भंते ! सोहम्मे कप्पे ? 0 पुच्छा। गोयमा ! सोहम्मे कप्पे सिय आया, सिय नो प्राया, जाव नो पाया ति य / [22-1 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प (प्रथम देवलोक) प्रात्मरूप (सद्रूप) है ? इत्यादि प्रश्न है। [22-1 उ.] गौतम ! सौधर्मकल्प कथंचित् प्रात्मरूप है, कञ्चित् नो-प्रात्मरूप है तथा कञ्चित् आत्मरूप-ना-आत्मरूप (सद्-असद्रूप) होने से प्रवक्तव्य है / [2] से केणणं भंते ! जाव नो आया ति य? गोयमा ! अपणो आदि आया, परस्स आदि? नो प्राया, तदुभयस्स आदि8 अवत्तन्वं - आता ति य, नो आया ति य / से तेण?णं तं चेव जाव नो आया ति य / [22-2 प्र. भगवन् ! इस कथन का क्या कारण है ? [22-2 उ. गौतम ! स्व-स्वरूप की दृष्टि से कथन किये जाने पर प्रात्मरूप है, पर-रूप की दष्टि से कहे जाने पर नो-प्रात्मरूप है और उभयरूप को अपेक्षा से प्रवक्तव्य है / इसी कारण उपर्युक्त रूप से कहा गया है। 23. एवं जाव अच्चुए कप्पे / |23| इसी प्रकार यावत् अच्युतकल्प (बारहवें देवलोक) तक (के पूर्वोक्त स्वरूप के विषय में) जानना चाहिए। 24. आया भंते ! गेवेज्जविमाणे, अन्ने गेविज्जविमाणे? एवं जहा रयणघ्यभा तहेव / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org