________________ 398 व्याख्याप्रज्ञाप्तसूत्र है / जब वह उत्तरगुणा का प्रतिसवी होता है तो दस प्रकार के प्रत्याख्यानों में से किसी एक प्रत्याख्यान का प्रतिसेबी होता है। 37. पडिसेवणाकुसोले जहा पुलाए। [37] प्रतिसेवनाकुशील का कथन पुलाक के समान जानना चाहिए / 38. कसायकुसोले० पुच्छा। गोयमा ! नो पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होज्जा / [38 प्र.] भगवन् ! कषायकुशील प्रतिसेवी होता है या अप्रतिसेवी? 138 उ. ] गौतम ! वह प्रतिसेवी नहीं होता, अप्रतिसेवी होता है। 36. एवं नियंठे वि। | 36] इसी प्रकार निर्ग्रन्थ के विषय में जानना चाहिए / 40. एवं सिणाए वि / [दारं 6] / [40] इसी प्रकार स्नातक-सम्बन्धी वक्तव्यता समझना चाहिए / [ छठा द्वार विवेचनप्रतिसेवी-अप्रतिसेवी : लक्षण--संज्वलनकषाय के उदय से जो सयम विरुद्ध पाचरण करता है, वह प्रतिसेवी (प्रतिसेवक) है और जो किसी भी दोष का सेवन नहीं करता, वह अप्रतिसेवी है। मूलगुण-उत्तरगुण-~-प्राणातिपात विरमणादिरूप पांच महाव्रत साधुवर्ग के लिए मूलगुण कहलाते हैं और अनागत, अतिक्रान्त, कोटि सहित, इत्यादि इस प्रकार के प्रत्याख्यान एवं उपलक्षण से पिण्डविशुद्धि, नौकारसी, पौरसी आदि उत्तरगुण कहलाते हैं / इनमें दोष लगाने वाला साधुवर्ग क्रमश: मूलगुणप्रतिसेवी और उत्तर गुणप्रतिसेवी कहलाता है।' निष्कर्ष-पुलाक और प्रतिसेवनाकुशील मूल-उत्तरगुणप्रतिसेवी, बकुश उत्तरगुणप्रतिसेवी तथा कषाय कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक अप्रतिसेवी होते हैं / सप्तम ज्ञानद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में ज्ञान और श्रुताध्ययन की प्ररूपणा 41. पुलाए णं भंते ! कतिसु नाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा होज्जा। दोसु होमाणे दोसु आभिणिबोहियनाण-सुयनाणेसु होज्जा, तिसु होमाणे तिसु भाभिनिबोहियनाण-सुधनाण-प्रोहिनाणेसु होज्जा। [41 प्र.] भगवन् ! पुलाक में कितने ज्ञान होते हैं ? 41 उ.] गौतम ! पुलाक में दो या तीन ज्ञान होते हैं / यदि दो ज्ञान हों तो आभिनिबोधिक 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 894 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3361 2. वियापण्णत्तिसुत्तं भा. 2 ( मू. पा. टि.) पृ. 1022 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org