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________________ भंगवतीसून (शतक 16, उद्देशक 4) में सकामनिर्जरा के महत्त्व का प्रतिपादन करने वाला एक सुन्दर प्रसंग है / गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि एक नित्यभोजी श्रमण साधना के द्वारा जितने कर्मों को नष्ट करता है, उतने कर्म एक नैरयिक जीव सौ वर्ष में अपार वेदना सहन कर नष्ट कर सकता है ? समाधान करते हुए भगवान महावीर ने कहा...नहीं / पुनः गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि एक उपवास करने वाला श्रमण जितने कर्मों को नष्ट करता है, उतने कर्म एक हजार वर्ष तक असह्य वेदना सहन कर नरक का जीव नष्ट कर सकता है ? भगवान् ने समाधान दिया-नहीं। गौतम ने पुनः पूछा-भगवन् ! आप किस दृष्टि से ऐसा कहते हैं ? भगवान् ने कहा- जैसे एक वृद्ध, जिसका शरीर जर्जरित हो चुका है, जिसके दांत गिर चके हैं, जो अनेक दिनों से भूखा है, वह वृद्ध परशु लेकर एक विराटु वृक्ष को काटना चाहता है और इसके लिये वह मुंह से जोर का शब्द भी करता है, तथापि वह उस वक्ष को काट नहीं पाता / बैसे ही नरयिक जीव तीव्र कर्मों को भयंकर वेदना सहन करने पर भी नष्ट नहीं कर पाता / पर जैसे उस विराट वक्ष को एक युवक देखते-देखते काट देता है, वैसे ही श्रमरण निग्रन्थ सकामनिर्जरा से कर्मों को शीघ्र नष्ट कर देते हैं। इसी तथ्य को भगवतीसूत्र के शतक 6, उद्देशक 1 में स्पष्ट किया है कि नरयिक जीव महावेदना का अनुभव करने पर भी महानिर्जरा नहीं कर पाता जबकि श्रमण निर्ग्रन्थ अल्पवेदना का अनुभव करके भी महानिर्जरा करता है। जैसे मजदूर अधिक श्रम करने पर भी कम अर्थलाभ प्राप्त करता है और कारीगर कम श्रम करके अधिक अर्थलाभ प्राप्त करता है। संत जीवन की महिमा और प्रकार जैन साहित्य में सन्त की महिमा और गरिमा का यत्र-तत्र उल्लेख हुआ है / सन्त का जीवन एक अनूठा जीवन होता है। वह संसार में रहकर भी संसार के विषय-विकारों से अलिप्त रहता है। अलिप्त रहने से उसके जीवन में सुख का सागर लहराता रहता है। गणधर गौतम के अन्तर्मानस में यह जिज्ञासा उदबुद्ध हई कि श्रमण के जीवन में सुख की मात्रा कितनी है ? देवगण परम सुखी कहलाते हैं तो क्या श्रमण का सुख देवताओं के सूख से कम है या ज्यादा? उन्होंने अपनी जिज्ञासा भगवान महावीर के सामने प्रस्तुत की। महावीर ने गौतम की जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहा–तराज के एक पलड़े में जिस श्रमण की दीक्षापर्याय एक मास की हई हो, उसके जीवन में जो सुख है उसको रखा जाये और दूसरे पलड़े में वाणव्यन्तर देवों के सुख को रखा जाये तो वाणव्यन्तर की अपेक्षा उस श्रमण के सुख का पलड़ा भारी रहेगा। इसी प्रकार दो मास के श्रमण के सुख के सामने भवनवासी देवों का सुख नगण्य है। इस तरह बारह मास की दीक्षापर्याय वाले श्रमण को जो सुख है, वह सुख अनुत्तरोपपातिक देवों को भी नहीं है। प्राध्यात्मिक सूख के सामने भोतिक सूख कितना तुच्छ है, यह स्पष्ट किया गया है। अनुत्तर विमानवासी देवों का सुख भी, जो श्रमण प्रात्मस्थ हैं, उनके सामने नगण्य है। भगवतीसत्र में श्रमण निर्ग्रन्थों के सम्बन्ध में विविध दृष्टियों से चिन्तन किया है। गौतम ने जिज्ञासा प्रकट की कि भगवन् ! निर्गन्थ कितने प्रकार के हैं ? भगवान् ने निर्ग्रन्थों के पुलाक, अकुश, कुशील, निम्रन्थ और स्नातक-ये पांच प्रकार बताये और प्रत्येक के पांच-पांच अन्य प्रकार भी बताये हैं। 4 गौतम ने यह भी जिज्ञासा प्रस्तुत की कि संयमी के कितने प्रकार 93. भगवती. शतक 14, उद्देशक 9 94. भगवती. शतक 25, उद्देशक 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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