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________________ भगवान् ने समाधान दिया कि उसको ईपिथिक क्रिया ही लगती है, साम्परायिक क्रिया नहीं, क्योंकि उसमें कषाय का अभाव है। इस प्रकार बन्ध और कर्मबन्ध होने को कारण चेष्टा रूप जो किया है, उस सम्बन्ध में अनेक प्रश्नों के द्वारा मूल प्रागम में प्रकाश डाला गया है, जो ज्ञानवर्द्धक और विवेक को उदबुद्ध करने वाला है। निर्जरा भारतीय चिन्तन में जहाँ बन्ध के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है, वहाँ आत्मा से कर्मवर्गणाओं को पृथक करने के सम्बन्ध में भी चिन्तन है। जैन पारिभाषिक शब्दावली में प्रात्मा से कर्मवर्गणामों का पृथक हो जाना या उन कर्म पुद्गलों को पृथक कर देना निर्जरा है। निर्जरा शब्द का अर्थ है-जर्जरित कर देना, झाड़ देना / निर्जरा के दो प्रकार हैं-१. भावनिर्जरा और 2. द्रव्य निर्जरा / प्रात्मा की वह विशुद्ध अवस्था जिसके कारण कर्मपरमाणु प्रात्मा से पृथक् हो जाते हैं, वह भावनिर्जरा है। यही कर्मपरमाणुगों का प्रात्मा से पृथक्करण द्रव्यनिर्जरा है। भावनिर्जरा कारणरूप है और द्रव्य निर्जरा कार्यरूप है। उत्तराध्ययन सूत्र में इसी तथ्य को रूपक की भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत किया है.--प्रात्मा सरोवर है, कर्म पानी है। कर्म का आश्रव पानी का आगमन है / उस पानी के प्रागमन के द्वारों को अवरुद्ध कर देना संवर है और पानी को उलीचना और सुखाना निर्जरा है / प्रकारान्तर से निर्जरा के सकामनिर्जरा और अकामनिर्जरा, ये दो प्रकार हैं। जिसमें कर्म जितनी कालमर्यादा के साथ बंधा हुना है, उसके समाप्त हो जाने पर अपना विपाक यानी फल देकर प्रात्मा से पृथक हो जाता है, वह अकामनिर्जरा है। इस प्रकामनिर्जरा को यथाकाल निर्जरा, सबिपाक निर्जरा और अनोपक्रमिक निर्जरा भी कहते हैं। विपाक-अवधि के आने पर कर्म अपना फल देकर स्वाभाविक रूप से पथक हो जाते हैं, इसमें कर्म को पथक करने के लिये प्रयास की आवश्यकता नहीं होती / इस निर्जरा का महत्व साधना की दृष्टि से नहीं है। क्योंकि कर्मों का बन्ध और इस निर्जरा का क्रम प्रतिपल-प्रतिक्षण चलता रहता है। जब तक नूतन कर्मों का बन्धन अवरुद्ध नहीं होता तब तक सापेक्ष रूप से इस निर्जरा से लाभ नहीं होता / जिस प्रकार एक व्यक्ति पुराने ऋण को चुकाता तो रहता है पर नवीन ऋण भी ग्रहण करता रहता है तो वह व्यक्ति ऋण से मुक्त नहीं होता। अकामनिर्जरा अनादि काल से करने के बावजूद भी प्रात्मा मुक्त नहीं हो सका / भव-परम्परा को समाप्त करने के लिये सकामनिर्जरा की आवश्यकता है। सकामनिर्जरा वह है, जिसमें तप आदि की साधना के द्वारा कर्मों की कालस्थिति परिपक्व होने के पहले ही प्रदेशोदय के द्वारा उन्हें भोगकर बलात् पृथक कर दिया जाता है। इसमें विपाकोदय या फलोदय नहीं होता। केवल प्रदेशोदय ही होता है। विपाकोदय और प्रदेशोदय के अन्तर को समझाने के लिये डॉ. सागरमल जैन ने एक उदाहरण दिया है-"जब क्लोरोफार्म संघाकर किसी व्यक्ति को चीर-फाड़ की जाती है तो उसमें उसे असातावेदनीय (दुखानुभूति) नामक कर्म का प्रदेशोदय होता है, लेकिन विषाकोदय नहीं होता है। उसमें दुःखद वेदना के तथ्य तो उपस्थित होते हैं, लेकिन दुःखद बेदना की अनुभूति नहीं है। इसी प्रकार प्रदेशोदय में कर्म के फल का तथ्य तो उपस्थित हो जाता है, किन्तु उसकी फलानुभूति नहीं होती।" इसलिये यह निर्जरा अविपाक निर्जरा या सकाम निर्जरा कहलाती है / इस निर्जरा में कर्मपरमाणुनों को प्रात्मा से पृथक् करने के लिये संकल्प होता है। इसमें प्रयासपूर्वक कर्मवर्गणा के पुदगलों को आत्मा से पथक किया जाता है / 'इसिभासियं' ग्रन्थ में लिखा है कि संसारी आत्मा प्रतिपल-प्रतिक्षण अभिनव कर्मों का बन्ध और पुराने कमों की निर्जरा कर रहा है। पर तप के द्वारा होने वाली निर्जरा का विशेष महत्व है। 91. डॉ. सागरमल जैन; जैन, बौद्ध और गीता के प्राचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग 1, पृष्ठ 396 92. इसिभासियं 9/10 [ 35 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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