________________ 348] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [14 प्र.] भगवन् ! जो जीव वैमानिक देवों में उत्पन्न होने योग्य है, वह किस लेश्या वालों में उत्पन्न होता है ? 14 उ. गौतम ! जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव काल करता है, उसी लेश्या वालों में वह उत्पन्न होता है। जैसे कि तेजोलेश्या, पदमलेश्या अथवा शुक्ललेश्या वालों में / विवेचन-नारकों से लेकर वैमानिक देवों तक में उत्पन्न होने योग्य जीवों को लेश्या का प्ररूपण-प्रस्तुत सूत्र-त्रय में नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक (24 दण्डकों) में से कहीं भीउत्पन्न होने वाले जीव की लेश्या के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। एक निश्चित सिद्धान्त-जैन दर्शन का एक निश्चित सिद्धान्त है कि अन्तिम समय में जिस लेश्या में जीव मरता है, उसी लेश्या वाले जीवों में वह उत्पन्न होता है / इसी दृष्टिकोण को लेकर में नारक, ज्योतिष्क एवं वैमानिक पर्याय में उत्पन्न होने वाले जीवों की लेश्या के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया तो शास्त्रकार ने उसी सिद्धान्तवाक्य को पुनः पुनः दोहराया है—"जल्लेसाई दवाई परिप्राइत्ता कालं करेइ, तल्लेसेसु उववज्जई"जिस लेश्या से सम्बद्ध द्रव्यों को, ग्रहण करके जीव मृत्यु प्राप्त करता है, उसी लेश्या वाले जीवों में उत्पन्न होता है। तीन सूत्र क्यों ? ---इस दृष्टि से पूर्वोक्त सिद्धान्त सिर्फ एक (12 3) सूत्र में बतलाने से ही काम चल जाता, शेष दो सूत्रों को प्रावश्यकता नहीं थी, किन्तु इतना बतलाने मात्र से काम नहीं चलता; यह भी बतलाना आवश्यक था कि किन जीवों में कौन-कौन-सी लेश्याएँ होती हैं ? यथानैरपिकों में कृष्ण, नील और कापोत, ये तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं, ज्योतिष्कों में एकमात्र तेजोलेश्या और वैमानिकों में तेजो, पद्म एवं शुक्ल, ये तीन शुभ लेश्याएँ होती हैं।' अन्तिम समय को लेश्या कौन-सी?—जो देहधारी मरणोन्मुख (म्रियमाण) है, उसका मरण बिलकुल अन्तिम उसी लेश्या में हो सकता है, जिस लेश्या के साथ उसका सम्बन्ध कम से कम अन्तर्मुहूर्त तक रहा हो / इसका अर्थ है-कोई भी मरणोत्मुख प्राणी लेश्या के साथ सम्पर्क के प्रथम पल में ही मर नहीं सकता, अपितु जब इसकी कोई अमुक लेश्या निश्चित हो जाती है, तभी वह पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करने जा सकता है / और लेश्या के निश्चित होने में कम से कम अन्तमुहूर्त लगता है। निम्नोक्त तीन गाथाओं द्वारा प्राचार्य ने इस तथ्य का समर्थन किया है-२ समस्त लेश्यानों के परिणत होने के प्रथम समय में किसी भी जीव का परभव में उपपात (जन्म) नहीं होता, 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत (मूलपाठ-टिप्पण युक्त) भा. 1, पृ. 161 (ख) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 188 सव्वाहि लेस्साहिं पढमे समयंमि परिणयाहि तु / नो कस्स वि उववाओ, परे भवे अस्थि जीवस्स // 1 // सव्वाहिं लेस्साहिं चरमे समयंमि परिणयाहि तू। नो कस्स वि उववाओ, परे भवे अस्थि जीवस्स // 2 // अंतमुहत्तंमि गए, अंतमुहुतमि सेसए चेव। लेस्साहिं परिणयाहि, जीवा गच्छति परलोयं // 3 // ----भगवती प्रवृत्ति, पत्रांक 188 में उद्धत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org