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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-४] निष्कर्ष---मेघ (बलाहक) अजीव होने से उनमें विकुर्वणाशक्ति नहीं है. किन्तु स्वभावत: (विस्रसा) रूप-परिणमन मेघों में भी होता है, इसीलिए यहाँ विउवित्तए' शब्द के बदले 'परिणामेत्तए' शब्द दिया है / मेघ स्त्री आदि अनेक रूपों में परिणत होकर, अचेतन होने से आत्म द्ध प्रात्मकर्म और प्रात्मप्रयोग से गति न करके, वाय, देव आदि से प्रेरित होकर (परऋद्धि, परकर्म और परप्रयोग से) अनेक योजन तक गति कर सकता है। विशेष बात यह है कि बलाहक जब यान के रूप में परिणत होकर गति करता है, तब उसके एक ओर भी चक्र रह सकता है, दोनों ओर भी। चौबीसदण्डकवर्ती जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों को लेश्या-सम्बन्धी प्ररूपरणा 12. जीवे णं भते ! जे भविए मेरइएसु उववज्जित्तए से णं भते ! किलेसेसु उक्वज्जति ? ... गोयमा ! जल्लेसाई दवाई परियाइता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तं०-कण्हलेसेसु वा नीललेसेसु वा काउलेसेसु वा / [12] भगवन् ! जो जीव, नैरयिकों में उत्पन्न होने वाला है, वह कौन-सी लेश्या वालों में उत्पन्न होता है ? [12 उ.] गौतम ! वह जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता है, उसी लेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है / यथा-कृष्णलेश्यावालों में, नीललेश्या वालों में, अथवा कापोतलेश्यावालों में। 13. एवं जस्स जा लेस्सा सा तस्स भागियव्वा जाव जीवे णं भते ! जे भविए जोतिसिएसु उववज्जित्तए० पुच्छा। गोयमा ! जल्लेसाई दवाइं परियाइता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तं० ते उलेस्सेसु / [13] इस प्रकार जो जिसको लेश्या हो, उसकी वह लेश्या कहनी चाहिए / यावत् व्यन्तरदेवों तक कहना चाहिए। [प्र.] भगवन् ! जो जीव ज्योतिष्कों में उत्पन्न होने योग्य है, वह किन लेश्याओं में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव काल करता है, वैसी लेश्यावालों में वह उत्पन्न होता है। जैसे कि-तेजोलेश्यावालों में / 14. जीवे णं मते ! जे भविए वेमाणिएसु उववज्जित्तए से गं भते ! किलेस्सेसु उबवज्जइ ? गोयमा ! जल्लेसाई दवाई परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तं०-ते उलेस्सेसु वा पम्हलेसेसु वा सुक्कलेसेसु वा। 1. (क) भगवती-सूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 166-187 (ख) वियाहपण्णत्तिसुतं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 160-161 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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