________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3] [305 युग्म-प्रदेशिक है, वह जघन्य बारह प्रदेशों वाला और बारह अाकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय प्रदेशों में अवगाढ होता है। 41. परिमंडले णं भंते ! संठाणे कतिपएसिए० पुच्छा। गोयमा! परिमंडले णं संठाणे दुविहे पन्नते, तं जहा-घणपरिमंडले य पयरपरिमंडले य। तत्थ णं जे से पयरपरिमंडले से जहन्नेणं वीसतिपएसिए वीसतिपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंतपए तहेव / तत्थ णं जे से घणपरिमंडले से जहन्नेणं चत्तालीसतिपएसिए, चत्तालीसतिपएसोगाढे पन्नत्ते; उक्कोसेणं अणंतपएसिए, असंखेज्जपएसोगाढे पन्नत्ते। [41 प्र. भगवन् ! परिमण्डल-संस्थान कितने प्रदेशों वाला है और कितने आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है ? [41 उ.] गौतम ! परिमण्डल-संस्थान दो प्रकार का कहा है / यथा-घन-परिमण्डल और प्रतर-परिमण्डल / उनमें जो प्रतर-परिमण्डल है, वह जघन्य बीस प्रदेश वाला और बीस अाकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है, तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है। उनमें जो धन-परिमण्डल है, वह जघन्य चालीस प्रदेशों वाला और चालीस प्राकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्यात अाकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है। विवेचन-परिमण्डल का कथन पहले क्यों नहीं पांच संस्थानों में प्रथम परिमण्डल संस्थान है, उसका कथन पहले किया जाना चाहिए, किन्तु यहाँ परिमण्डल को छोड़कर 'वृत्त', 'छ्यस्त्र' आदि क्रम से कथन किया गया है / उसका कारण यह है कि इन चारों में सम-प्रदेशों और विषम-प्रदेशों का कथन होने से सभी में प्रायः समानता है / इसलिए पहले इनका कथन और बाद में परिमण्डल का कथन किया गया है / अथवा सूत्र का क्रम विचित्र होने से इस प्रकार का कथन किया है / ' ___ ओज और युग्म की परिभाषा–एक, तीन, पांच आदि विषम (एकीवाली) संख्या को 'ओज' कहते हैं और दो, चार, छः आदि सम (बेकी वाली-जोड़े वाली) संख्या को 'युग्म' कहते हैं / घनवृत्त और प्रतरवृत्त का स्वरूप लड्डू अथवा गेंद के समान जो गोल हो, उसे 'घनवृत्त' कहते हैं, और भण्डक-(पकाया हुआ एक प्रकार का अन्न) के समान, जो गोल होने पर भी मोटाई में कम हो, उसे 'प्रतरवृत्त' कहते हैं। प्रतरवृत्त और घनवृत्त का रेखाचित्र-प्रोजप्रवेशी प्रतरवृत्त में दो प्रदेश ऊपर, एक प्रदेश बीच में और दो प्रदेश नीचे होते हैं / यथा युग्मप्रदेशो प्रतरवृत्त-में बारह प्रदेश होते हैं, जिनमें दो प्रदेश ऊपर, उससे नीचे चार प्रदेश, उसके नीचे फिर चार प्रदेश और उसके नीचे दो प्रदेश होते हैं यथा-- 10 00 0 0 00 00 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 861 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org