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________________ 312 ] [ व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र उल्लेख मिलता है जो अरण्य में चोरों द्वारा वस्त्रादि लूटे जाने से नग्न होकर विरक्त रहने लगा था। उसकी विरक्ति और निःस्पृहता देखकर कहते हैं, उसके 80 हजार अनुयायी हो गए थे।' सुसुमार पुर–सुसुमारगिरि-- बौद्धों के पिटक ग्रन्थों में सुसुमारपुर के बदले सूसुमारगिरि का उल्लेख मिलता है, जिसे वहाँ 'भग्ग' देशवर्ती बताया गया है / सम्भव है, सुसुमारगिरि के पास ही कोई भगदेशवर्ती सुसुमारपुर हो / कठिन शब्दों को व्याख्या-'दो वि पाए साह?'-दोनों पैरों को इकट्ठे-संकुचित करके. जिनमुद्रापूर्वक स्थित होकर / वग्घारियपाणी दोनों भुजाओं को नीचे की ओर लम्बी करके / ईसिंपन्भारगएणं-ईषत् = थोड़ा सा, प्राग्भार = आगे मुख करके अवनत होना। चमरेन्द्र द्वारा सौधर्मकल्प में उत्पात एवं भगवदाश्रय से शकेन्द्रकृत वज्रपात से मुक्ति 25. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गए समाणे उड्ढे वोससाए प्रोहिणा प्राभोएइ जाव सोहम्मो कप्पो। पासइ य तत्थ सक्कं देविद देवरायं मघवं पागसासणं सतक्कतु सहस्सक्खं वज्जपाणि पुरंदरं जावः दस दिसानो उज्जोवेमाणं पभासेमाणं / तोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेसए विमाणे सभाए सुहम्माए सवकसि सोहासणंसि जाव दिन्वाई भोगभोगाई भुजमाणं पासइ, 2 इमेयारूवे अज्झस्थिर चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुष्पज्जित्था- केस ण एस अपत्थियपत्यए दुरंतपंतलक्खणे हिरि-सिरिपरिवज्जिए हीणपुण्णचाउद्दसे जे णं ममं इमाए एयारूवाए दिव्वाए दविड़ढीए जाव दिव्वे देवाणुभावे लद्ध पत्ते जाव अभिसमन्नागए उपिप अप्पुस्सुए दिवाई भोगभोगाई भुजगाणे विहरह? एवं संपेहेइ, 2 सामाणियपरिसोववन्नए देवे सद्दावेइ, 2 एवं वयासी-केस णं एस देवाणुपिया ! अपत्थियपत्थए जाव भुजमाणे विहरइ / [25] जब असुरेन्द्र प्रसुरराज चमर (उपर्युक्त) पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हो गया, तब उसने स्वाभाविक (विस्रसा) रूप से ऊपर सौधर्मकल्प तक अवधिज्ञान का उपयोग किया। वहाँ उसने देवेन्द्र देवराज, मघवा, पाकशासन, शतऋतु, सहस्राक्ष, वनापाणि, पुरन्दर शक्र को यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रकाशित करते हुए देखा / (साथ ही उसने शकेन्द्र को) सौधर्मकल्प में सौधर्मावतंसक विमान में शक नामक सिंहासन पर बैठकर, यावत् दिव्य एवं भोग्य भोगों का 1. (क) श्रीमद भगवतीसून (टीकानवादसहित) (पं. बेचरदास जी) खण्ड 2 पृ-५५-५६ (ख) मज्झिमनिकाय में चुल्लस ारोपमसुत्त 30, पृ. 139, महासच चकमुत्त 36, पृ. 172, बौद्धपर्व प्र. 10 पृ-१२७ 2. (क) वही, खण्ड 2, पृ-५६ (ख) मज्झिमनिकाय में अनुमानसुत्त 15 पृ-७०, और मारतज्जनियसुत्त 50, पृ-२२४ 3. भगवतीसूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 174 4. 'जाव' शब्द से यह पाठ ग्रहण करना चाहिए— 'दाहिगड्ढलोगाहिबई बत्तीसविमाणसयसहस्साहिबई एरावण वाहणं सुरिदं अरयंबरवत्यधर......"आलइयमालमउड नवहेमचाचित्तचंचलकुडलविलिहिज्जमाणगंडं।" -भगकी. अ. वृति, पत्रांक 174 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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