________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२ [ 313 उपभोग करते हुए देखा / इसे देखकर चमरेन्द्र के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक (आन्तरिक) चिन्तित, प्राथित एवं मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ कि-अरे ! कौन यह अप्राथित-प्रार्थक (अनिष्ट वस्तु की प्रार्थना-अभिलाषा करने वाला, मृत्यु का इच्छुक), दूर तक निकृष्ट लक्षण वाला तथा लज्जा (ही) और शोभा (श्री) से रहित, हीनपुण्या (अपूर्ण) चतुर्दशी को जन्मा हुआ है, जो मुझे इस प्रकार की इस दिव्य देव-ऋद्धि यावत दिव्य देवप्रभाव लब्ध प्राप्त और अभिसमन्वागत (अभि समानीत) होने पर भी मेरे ऊपर (सिर पर) उत्सुकता से रहित (लापरवाह) हो कर दिव्य एवं भोग्य भोगों का उपभोग करता हुया विचर रहा है ? इस प्रकार का सम्प्रेक्षण (आत्मस्फुरण) करके चमरेन्द्र ने अपनी सामानिकपरिषद् में उत्पन्न देवों को बुलाया और बुला कर उनसे इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! यह बताओ कि यह कौन अनिष्ट-मृत्यु का इच्छुक है ; यावत् दिव्य एवं भोग्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है ? 26. तए णं ते सामाणियपरिसोववन्नगा देवा चमरेणं असुरिदेणं असुररण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुद्वा० जाव यहियया करयलपरिम्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट जयेणं विजयेणं वद्वाति, 2 एवं वयासी--एस णं देवाणुप्पिया ! सक्के देविद द वराया जाव विहरई। [26] असुरेन्द्र असुरराज चमर द्वारा सामानिक परिषद् में उत्पन्न देवों से इस प्रकार कहे (पूछे) जाने पर (आदेश प्राप्त होने के कारण वे चित्त में अत्यन्त हर्षित और सन्तुष्ट हुए / यावत् हृदय से हृत-प्रभावित (आकषित) होकर उनका हृदय खिल उठा / दोनों हाथ जोड़कर दसों नखों को एकत्रित करके शिरसावर्तसहित मस्तक पर अंजलि करके उन्होंने चमरेन्द्र को जय-विजय शब्दों से बधाई दी / फिर वे इस प्रकार बोले-'हे देवानुप्रिय ! यह तो देवेन्द्र देवराज शक्र है, जो यावत् दिव्य भोग्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है !' 27. तए णं से चमरे असुरिंद असुरराया तेसि सामाणियपरिसोक्वनगाणं देवाणं अंतिए एयम सोच्चा निसम्म प्रासुरुत्ते 8 कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे ते सामाणियपरिसोववन्नए देवे एवं वयासो--'अन्ने खलु भो! से सक्के देविंद देवराया, अन्ने खलु भो! से चमरे असुरिंदे असुरराया, महिड्ढोए खलु से सक्के देविदे देवराया, अप्पिड्ढोए खलु भो ! से चमरे प्रसुरिंद असुरराया। तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया! सक्कं देविदं देवरायं सयमेव अच्चासादेत्तए' त्ति कट्ट उसिणे उसिणभूए याऽवि होत्था। [27] तत्पश्चात् उन सामानिक परिषद् में उत्पन्न देवों से इस बात (उत्तर) को सुनकर मन में अवधारण करके वह असुरेन्द्र असुरराज चमर शीघ्र ही क्रुद्ध (लालपीला), रुष्ट, कुपित एवं चण्ड–रौद्र आकृतियुक्त हुआ, और क्रोधावेश में आकर बड़वड़ाने लगा। फिर उसने सामानिकपरिषद् में उत्पन्न देवों से इस प्रकार कहा- "अरे ! वह देवेन्द्र देवराज शक्र कोई दूसरा है, और यह असुरेन्द्र असुरराज चमर कोई दूसरा है ! देवेन्द्र देवराज शक्र तो महाऋद्धि वाला है, जबकि असुरेन्द्र असुरराज चमर अल्पऋद्धि वाला ही है, (यह सब मैं जानता हूँ, फिर भी मैं इसे कैसे सहन कर सकता हूँ ?) प्रतः हे देवानुप्रियो ! मैं चाहता हूँ कि मैं स्वयमेव (अकेला ही) उस देवेन्द्र देवराज शक्र को उसके स्वरूप (पद या शोभा) से भ्रष्ट कर दें।' यों कह कर वह चमरेन्द्र (कोपवश) गर्म (उत्तप्त) हो गया, (अस्वाभाविक रूप से) गर्मागर्म (उत्तेजित) हो उठा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org