________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 9] 6427 है कि तेजोलेश्या प्रशस्तलेश्या है और वह सुख की हेतु है / यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके तेजोलेश्या पद से सुखासिका अर्थ प्रतिपादित किया है।' सुक्के सुक्काभिजातिए : विशेषार्थ-शुक्ल का अर्थ यहाँ अभिन्नवृत्त-(अखण्डचारित्री), अमत्सरी, कृतज्ञ, सदारम्भी एवं हितानुबन्ध है तथा 'शुक्लाभिजात्य' का अर्थ परमशुक्ल अर्थात्निरतिचार-चारित्री-विशुद्धचारित्राराधक / एक वर्ष से अधिक दीक्षा पर्याय वाला क्रमश: शुक्ल एवं परमशुक्ल होकर अन्त में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त यावत् सर्वदुःखों का अन्त करने वाला होता है / अज्जत्ताए प्रार्यत्व से युक्त, अर्थात्-पापकर्म से दूर। वोइवयंति-व्यतिक्रमण लांघ जाते हैं। // चौदहवां शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 656-657 (ख) भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका, भा. 11, पृ. 415 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 657 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org