________________ 80] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (1) बलराजा का सुसज्जित होकर उपस्थानशाला में प्रागमन, (2) कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा वहाँ यवनिका एवं भद्रासन लगवाए गए। (3) स्वप्नलक्षण-पाठकों को बुलाने का आदेश, (4) राजा का आमंत्रण पा कर स्वप्नलक्षणपाठकों का आगमन, आशीर्वचन, राजा द्वारा सत्कारित एवं अपने-अपने भद्रासन पर स्वप्नपाठक उपविष्ट।' कठिन शब्दों का भावार्थ---पच्चसकालसमयंसि—प्रभात काल के समय / सयणिज्जाओशय्या से / अट्टणसाला व्यायामशाला। मज्जणघरे-स्नानगृह / अहिय-पेच्छणिज्ज-अधिक दर्शनीय / महाघवरपट्टणुगयं-महामूल्यवान् श्रेष्ठ पट्टन में बना हुआ / सोहपट्टभत्तिसय चित्तताणंजिसके ऊपर का वितान अथवा ताना सूक्ष्म (बारीक) सूत का और सैकड़ों प्रकार की कलाओं से चित्रित था। जवणियं—यवनिका-पर्दा / अंछावेति-खिचवाता है, लगवाता है / अत्थरय-मज्यमसूरगोत्थगं—वह अस्तर (अंदर के वस्त्र), एवं कोमल मसूरक (तकियों) से युक्त था / सेयवत्थपच्चत्थुतं-उस पर गद्दीयुक्त श्वेत वस्त्र ढका हुआ था / वेइयं-- वेग बाली / सिद्धत्थग-सिद्धार्थकसरसों। हरियालिय हरी दूब / पुन्वन्नत्थेसु-पहले बिछाए हुए / ' स्वप्नपाठकों से स्वप्नफल और उनके द्वारा समाधान 32. तए णं से बले राया पभावति देवि जवणियंतरियं ठावेइ, ठा० 2 पुप्फ-फलपडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! पभावती देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि वासघरंसि जाव सोहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा, तं गं देवाणुप्पिया ! एयस्स ओरालस्स जाय के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भवस्सति ? [32] तत्पश्चात् बल राजा ने प्रभावती देवी को (बुलाकर) यवनिका की आड़ में बिठाया / फिर पुष्प और फल हाथों में भर कर बलराजा ने अत्यन्त विनयपूर्वक उन स्वप्नलक्षणपाठकों से इस प्रकार कहा- "देवानुप्रियो ! आज प्रभावती देवी तथारूप उस बासगृह में शयन करते हुए यावत् स्वप्न में सिंह (तथारूप) देखकर जागृत हुई है / तो हे देवानुप्रियो ! इस उदार यावत् कल्याणकारक स्वप्न का क्या फलविशेष होगा? 33. [1] तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रण्णो अंतियं एयमढं सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ० तं० सुविणं ओगिण्हंति, तं० ओ० 2 ईहं पविसंति, ईहं पविसित्ता तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेंति, त० क० 1 अन्नमन्नेणं सद्धि संचालेंति अ० सं० 2 तस्स सुविणस्स लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियटा अभिगयट्ठा बलस्स रणो पुरो सुविणसत्थाई उच्चारेमाणा एवं उच्चारेमाणा क्यासी-- [33-1] इस पर बल राजा से इस (स्वप्नफल सम्बन्धी) प्रश्न को सुनकर एवं हृदय में अवधारण कर वे स्वप्नलक्षणपाठक प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुए। उन्होंने उस स्वप्न के विषय में सामान्य विचार (अवग्रह) किया, फिर विशेष विचार (ईहा) में प्रविष्ट हुए, तत्पश्चात् उस स्वप्न के अर्थ का निश्चय किया। फिर परस्पर-एक दूसरे के साथ विचार-चर्चा की, फिर उस स्वप्न का अर्थ स्वयं 1. वियाहपण ति. (मु. पा. टि.), भा. 2, पृ. 541-542 / 2. भगवती. अ. वृत्ति., पत्र 542 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org