________________ सप्तम शतक : उद्देशक-२ ] 27. एतेसि णं भंते ! जीवाणं सव्वुत्तरगुणपच्चक्खाणी०, प्रप्पाबहुगाणि / तिणि वि जहा पढमे दंडए (सु. 14-16) जाव मसाणं / [27 प्र.| भगवन् ! इन सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी, देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानी एवं अप्रत्याख्यानी जोवों में से कौन किनसे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? [27 उ.] गौतम ! इन तीनों का अल्पबहुत्व प्रथम दण्डक (सू. 14-16) में कहे अनुसार यावत् मनुष्यों तक जान लेना चाहिए / विवेचन -सर्वतः और देशतः मूलोत्तरगुणप्रत्याख्यानो तथा अप्रत्याख्यानी जीवों का तथा चौबीस वण्डकों में अस्तित्व एवं अल्पबहुत्व-~-प्रस्तुत 11 सूत्रों (सू. 17 से 27 तक) में सर्वतः देशतः मूलोत्तरगुणप्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानी समुच्चय जीवों तथा चौबीसदण्डकवर्ती जीवों के अस्तित्व एवं अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। निष्कर्ष-सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान केवल मनुष्य में ही होता है, देशमुलगुणप्रत्याख्यानी मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच दोनों ही हो सकते हैं, तथा शेष सभी जीव अप्रत्याख्यानी होते हैं। मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय कदाचित् अप्रत्याख्यानी भी होते हैं। सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी तथा देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानी मनुष्य और तियंच पंचेन्द्रिय हो सकते हैं / शेष सभी जीव अप्रत्याख्यानी हैं / अतः सबसे थोड़े सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, उनसे अधिक देशमूलगुणप्रत्याख्यानी जीव हैं, और सबसे अधिक अप्रत्याख्यानी हैं।' जीवों और चौबीस दण्डकों में संयत आदि तथा प्रत्याख्यानी आदि के अस्तित्व एवं अल्पबहुत्व को प्ररूपरणा 28. जीवा गं भंते ! कि संजता ? असंजता ? संजतासंजता? गोयमा ! जीवा संजया वि०, तिष्णि वि, एवं जहेव पण्णवणाए तहेव भाणियन्वं जाव वेमाणिया / अप्पाबहुगं तहेव (सु. 14-16) तिण्ह वि भाणियब्वं / [28 प्र. भगवन् ! क्या जीव संयत हैं, असंयत हैं, अथवा संयतासंयत हैं ? [28 उ.] गौतम ! जीव संयत भी हैं, असंयत भी हैं और संयतासंयत भी हैं। इस तरह प्रज्ञापना सूत्र ३२वें पद में कहे अनुसार यावत् वैमानिकपर्यन्त कहना चाहिए और अल्पबहुत्व भी तीनों का पूर्ववत् (सू. 14 से 16 तक में उक्त) कहना चाहिए / 26. जीवा गं भंते ! कि पच्चवखाणी? अपच्चक्खाणी ? पच्चक्खाणापच्चक्खाणी ? गोतमा ! जीवा पच्चक्खाणी वि, एवं तिणि वि / [29 प्र.] भगवन् ! क्या जीव प्रत्याख्यानी हैं, अप्रत्याख्यानी हैं, अथवा प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी हैं ? ___---- 1. वियाहाण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 281 से 283 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org