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________________ बारहवां शतक : उद्देशक 9 [209 [10-1 प्र. भगवन् ! देवाधिदेव कहाँ से (या कर) उत्पन्न होते हैं ? . [10-1 उ.] गौतम! वे नैरयिकों से (पा कर) उत्पन्न होते हैं, किन्तु तिर्यञ्चों से या मनुष्यों से उत्पन्न नहीं होते / देवों से भी (प्रा कर) उत्पन्न होते हैं / [2] जति नेरतिएहितो. एवं तिसु पुढवीसु उववज्जति, सेसाओ खोडेयवाओ। 10.2 प्र.] (भगवन् ! ) यदि नैरयिकों से प्राकर उत्पन्न होते हैं, तो रत्नप्रभापृथ्वी के नयिकों यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों में से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [10-2 उ.] गौतम ! (वे आदि की) तीन नरकपृथ्वियों में से पा कर उत्पन्न होते हैं। शेष चार (नरकपृथ्वियों) से (उत्पत्ति का) निषेध करना चाहिए / [3] जदि देवेहितो०, वेमाणिएसु सम्बेसु उववज्जति जाव सम्वट्ठसिद्ध ति / सेसा खोडेयन्वा / [10.3 प्र.} भगवन् ! यदि वे देवों से (पा कर) उत्पन्न होते हैं, तो क्या भवनपति ग्रादि से (प्रा कर) उत्पन्न होते हैं ? 610-3 उ.] गौतम ! ये, समरत वैमानिक देवों से यावत् सर्वार्थसिद्ध (के देवों) से (आकर) उत्पन्न होते हैं। शेष (देवों से उत्पत्ति) का निषेध (करना चाहिए / ) 11. भावदेवा गं भंते ! कओहितो उववज्जति ?0 एवं जहा वक्तीए' भवणवासीणं उववातो तहा भाणियन्वं / [11 प्र. भगवन् ! भावदेव किस गति से आकर उत्पन्न होते हैं ? {11 उ. गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद में जिस प्रकार भवनवासियों के उपपात का कथन किया है, उसी प्रकार यहाँ भी करना चाहिए / विवेचन --प्रस्तुत पांच सूत्रों (7 से 11 तक) में पूर्वोक्त पंचविध देवों की उत्पत्ति के स्थानों का वर्णन किया गया है। भव्य द्रव्यदेवों को उत्पत्ति-असंख्यातवर्ष की आयु वाले, अकर्मभूमिज, अन्तरद्वीपज जीवों एवं सर्वार्थसिद्ध के देवों से आकर भव्य द्रव्यदेवों की उत्पत्ति के निषेध का कारण यह है कि असंख्यात वर्ष की आयु वाले, अकर्मभूमिज एवं अन्तरद्वीपज तो सीधे भावदेवों में उत्पन्न होते हैं किन्तु भव्य द्रव्यदेवों (मनुष्य, तिर्यञ्चों) में उत्पन्न नहीं होते हैं और सर्वार्थसिद्ध के देव तो भव्यद्रव्यसिद्ध होते हैं, अर्थात्---वे तो मनुष्यभव प्राप्त करके सिद्ध हो जाते हैं, इसलिए वे सर्वार्थसिद्ध देवलोक से न तो किसी भी देवलोक में उत्पन्न होते हैं और न ही मनुष्य भव में उत्पन्न होकर पुनः भव्य द्रव्यदेवों में उत्पन्न होते हैं। 1. देखिये-पष्णवपासुत्त भा-१ (महावीर जै. वि), सू. 648-49, पृ. 174 में 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 585-586 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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