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________________ सोलहवां शतक : उद्देशाक] [55 जहा दसमसए विमला दिसा (स० 10 उ०१ सु० 16) तहेव निरवसेसं / हेडिल्ले चरिमंते जहेव लोगस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते (सु. 6) तहेव, नवरं देसे पंचेंदिएसु तियभंगो, सेसं तं चेव / / 7 प्र.] भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्वीय चरमान्त में जीव हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / 7 उ.] गौतम ! वहाँ जीव नहीं हैं। जिस प्रकार लोक के चार चरमान्तों के विषय में कहा गया, उसी प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के चार चरमान्तों के विषय में यावत् उत्तरीय चरमान्त तक कहना चाहिए। रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त के विषय में, दसवें शतक (उ. 1 सू. 16) में (उक्त) विमला दिशा की वक्तव्यता के समान सम्पूर्ण कहना चाहिए / रत्नप्रभा पृथ्वी के अधस्तन चरमान्त की वक्तव्यता लोक के अधस्तन चरमान्त के समान कहनी चाहिए / विशेषता यह है कि जीवदेश के विषय में पंचेन्द्रियों के तीन भंग कहने चाहिए / शेष सभी कथन उसी प्रकार करना चाहिए / 8. एवं जहा रयणप्पभाए चत्तारि चरिमंता भणिया एवं सक्करप्पभाए वि। उवरिमहेडिल्ला जहा रयणपमाए हेडिल्ले / [8] जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के चार चरमान्तों के विषय में कहा गया, उसी प्रकार शकराप्रभा पृथ्वी के भी चार चरमान्तों के विषय में कहना चाहिए। तथा रत्नप्रभा पृथ्वी के के अधस्तन चरमान्त के समान, शर्कराप्रभा-पृथ्वी के उपरितन एवं अधस्तन चरमान्त को वक्तव्यता कहनी चाहिए। 6. एवं जाव अहेसत्तमाए। [6] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम पृथ्वी के चरमान्तों के विषय में कहना चाहिए। 10. एवं सोहम्मस्स वि जाव अच्चुयस्स / [10] इसी प्रकार सौधर्म देवलोक से लेकर यावत् अच्युत देवलोक तक (के चरमान्तों के विषय में कहना चाहिए। 11. गेविजविमाणाणं एवं चेव / नवरं उपरिम-हेटिल्लेसु चरिमंतेसु देसेसु पंचेंदियाण वि मज्झिल्लविरहितो चेब, सेसं तहेव / [11] अवेयक विमानों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेषता यह है कि इनमें उपरितन और अधस्तन चरमान्तों के विषय में, जीवदेशों के सम्बन्ध में पंचेन्द्रियों में भी बीच का भंग नहीं कहना चाहिए / शेष सभी कथन पूर्ववत् करना चाहिए / 12. एवं जहा गेवेज्जविमाणा तहा अणुत्तरविमाणा वि, ईसिपम्भारा वि। [12] जिस प्रकार वेयकों के चरमान्तों के विषय में कहा गया, उसी प्रकार अनुत्तरविमानों तथा ईषत्प्राग्भारा-पृथ्वी के चरमान्तों के विषय में कहना चाहिए। विवेचन-रत्नप्रभा पृथ्वी के चरमान्तों से सम्बन्धित व्याख्या--लोक के चार चरमान्तों के समान रत्नप्रभा पृथ्वी के चार चरमान्तों का कथन करना चाहिए। रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरितन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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