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________________ पंचम शतक : उद्देशक-२] [425 17. अह भंते ! इंगाले छारिए, भुसे, गोमए एए णं किस रोरा ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! इंगाले छारिए भसे गोमए एए णं पुवमावपण्णवणाए एगिदियजीवसरीरप्पश्रोगपरिणामिया वि जाव पंचिदियजीवसरीरप्पप्रोगपरिणामिया वि, तो पच्छा सत्यातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया। [17 प्र.] भगवन् ! अब प्रश्न है--अंगार (कोयला, जला हुआ ईंधन या अंगारा) राख, भूसा और गोबर, इन सबको किन जीवों के शरीर कहे जाएँ ? [17 उ.] गौतम ! अंगार, राख, भूसा और गोबर (छाणा) ये सब पूर्व-भाव प्रज्ञापना की अपेक्षा से एकेन्द्रियजीवों द्वारा अपने शरीर रूप से, प्रयोगों से-- अपने साथ परिणामित एकेन्द्रिय शरीर हैं, यावत् (यथासम्भव द्वीन्द्रिय से) पंचेन्द्रिय जीवों तक के शरीर भी कहे जा सकते हैं, और तत्पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्निकाय-परिणामित हो जाने पर वे अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं। विवेचन--अस्थि प्रादि तथा अंगार आदि के शरीर का उनको पूर्वावस्था और पश्चादवस्था की अपेक्षा से प्ररूपण-प्रस्तुत सूत्रद्वय में प्रथम हड्डी अादि तथा प्रज्वलित हड्डी आदि एवं अंगार आदि के शरीर के विषय में पूछे जाने पर इनकी पूर्वावस्था और अनन्तरावस्था की अपेक्षा से उत्तर दिये गए हैं। अगार आदि चारों अग्नि प्रज्वलित ही विवक्षित---यहाँ अंगार आदि चारों द्रव्य अग्निप्रज्वलित ही विवक्षित हैं, अन्यथा आगे बताए गए अग्निध्यामित आदि विशेषण व्यर्थ हो जाते हैं।' पूर्वावस्था और अनन्त रावस्था-हड्डी आदि तो भूतपूर्व अपेक्षा से त्रस जीव के और अंगार आदि एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक के शरीर कहे जा सकते हैं, किन्तु बाद की शस्त्रपरिणत एवं अग्निपरिणामित अवस्था की दृष्टि से ये सब अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं। हड्डी आदि तोहीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रि एवं पंचेन्द्रिय जीवों में से किसी भी जीव के तथा नख, खुर, सींग आदि पंचेन्द्रिय जीवों के ही शरीर में होते हैं। इसी प्रकार अंगारा या राख ये दोनों वनस्पतिकायिक हरी लकड़ी के सूख जाने पर बनती है / भूसा भी गेहूँ आदि का होने से पहले एकेन्द्रिय (वनस्पतिकाय) का शरीर ही था, तथा गाय, भैंस आदि पशु जब हरी घास, पत्ती, या गेहूँ, जौ आदि का भूसा खाते हैं, तब उनके शरीर में से वह गोबर के रूप में निकलता है, अत: गोमय (गोबर) एकेन्द्रिय का शरीर ही माना जाता है / किन्तु पंचेन्द्रिय जीवों (पशुओं) के शरीर में द्वीन्द्रियादि जीव चले जाने से उनके शरीर प्रयोग से परिणामित होने से उन्हें द्वीन्द्रियजीव से ले कर पंचेन्द्रियजीव तक का शरीर कहा जा सकता है। लवणसमुद्र की स्थिति, स्वरूप आदि का निरूपण--- 18. लवणे णं भाते ! समुद्दे केवतियं चकवालविवखंभेणं पन्नत्ते? एवं नेयन्वं जाव लोगट्टिती लोगाणुभावे / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 213 2. (क) भगवती. टीकानूवाद-टिप्पणयुक्त, खण्ड 2, पृ.१६२ (ख) भगवती. अ. वृत्ति. पत्रांक 213 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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