________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२] [ 327 (1) वज्रभयमुक्त, किन्तु अपमानित हतप्रभ चमरेन्द्र की चिन्तित दशा / (2) चिन्ता का कारण पूछे जाने पर चमरेन्द्र द्वारा सामानिकों को आपबीती कहना / (3) भगवान महावीर की सेवा में सदलबल पहुँचकर चमरेन्द्र द्वारा कृतज्ञताप्रदर्शन, क्षमायाचन एवं अन्त में नाट्य-प्रदर्शन करके पुनः गमन / (4) चमरेन्द्र की दिव्य ऋद्धि आदि से सम्बन्धित कथन का भगवान् द्वारा उपसंहार; अन्त में, मोक्षप्राप्ति रूप उज्ज्वल भविष्यकथन / ' असुरकुमारों के सौधर्म कल्प पर्यन्त गमन का कारणान्तर निरूपरण 45. कि पत्तियं गंभ ते ! असुरकुमारा देवा उड्ढे उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो ? गोयमा! तेसि णं देवाणं अहणोववनगाण वा चरिमभवत्थाण वा इमेयारूवे प्रज्झस्थिए जाव समुपज्जति-अहो ! णं अम्हेहि दिवा दे विड्ढी लद्धा पत्ता जाव अभिलमनागया। जारिसिया णं अम्हेहि दिव्या देविड्ढी जाव अभिसमन्नागया तारिसिया णं सक्केणं देविदेणं देवरणा दिब्बा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागया, जारिसिया णं सक्केणं देविदणं देवरण्णा जाव अभिसमन्नागया तारिसिया णं अम्हेहि वि जाव अभिसमन्नागया। तं गच्छामो णं सक्कस्स देविदस्स देवरपणो अंतिथं पाउभवामो, पासामो ता सक्कस्स देविदस्स देवरगणो दिन्यं देविड्ढि जाव अमिसमन्नागयं / पासतु ताव अम्ह वि सक्के विदे देवराया दिव्वं देविड्ढि जाव अभिसमण्णागयं, तं जाणामो ताव सक्कस्स देविदस्स देवरपणो दिवं देविड्ढि जाव अभिसमन्नामयं, जाणउ ताव अम्ह वि सक्के दविद देवराया दिव्वं देविड्ढि जाव अभिसमष्णागयं / एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा उड्ढे उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // चमरो समत्तो॥ / तइए सए : बिइनो उद्देसनो समत्तो / / [45 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देव यावत् सौधर्मकल्प तक ऊपर किस कारण से जाते हैं ? [45 उ.] गौतम ! (देवलोक में) अधुनोत्पन्न (तत्काल उत्पन्न) तथा चरमभवस्थ (च्यवन के लिए तैयार) उन देवों को इस प्रकार का, इस रूप का आध्यात्मिक (आन्तरिक अध्यवसाय) यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न होता है-अहो ! हमने दिव्य देवऋद्धि यावत् उपलब्ध की है, प्राप्त की है, अभिसमन्वागत की है / जैसी दिव्य देवऋद्धि हमने यावत् उपलब्ध की है, यावत् अभिसमन्वागत -की है, वैसी ही दिव्य देव-ऋद्धि यावत् देवेन्द्र देवराज शक्र ने उपलब्ध को है यावत् अभिसमन्वागत की है, (इसी प्रकार) जैसी दिव्य देवऋद्धि यावत् देवेन्द्र देवराज शक्र ने उपलब्ध की है यावत् 1. वियाहपण्णत्तियुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) (पं. बेचरदासजी) भा. 1 पृ. 153-154 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org