________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-९] [35 प्रतिपादित किया गया है कि शिव राजा ने धन-धान्य आदि की वृद्धि एवं अपार समृद्धि प्रादि देख कर अपने पूर्वकृत-पुण्यफल का विचार किया और उसके फलभोग की अपेक्षा नवीन पुण्योपार्जन करने हेतु दिशाप्रोक्षक-तापरादीक्षा लेने और तापसोचित उपकरण जुटाने का संकल्प किया और फिर तदनुसार नगर की सफाई कराने का आदेश दिया / ' कठिन शब्दों का अर्थ-रज्जधुरं-राज्य का भार / कडुच्छ्यं-कुड़छी / कोत्तिया—कौत्रिकभूमिशायी। थालई खप्परधारी। हुंबउट्ठा कण्डीधारी। दंतुक्खलिया-फलभोजी। उम्मज्जगाएक बार पानी में डुबकी लगा कर स्नान करने वाले। संपखाला-सम्प्रक्षालक-मिट्टी रगड़ कर नहाने वाले / दक्षिणकूलगा-गंगा के दक्षिण तट पर रहने वाले / संखधमगा-शंख फूंक कर भोजन करने वाले / कूलधमगा-किनारे रह कर शब्द करने वाले / हत्थितावसा-हस्तितापस (हाथी को मार बहुत दिनों तक खाने वाले)। उहंडगा-ऊपर दण्ड करके चलने वाले / जलाभिसेयकढिणगायाजल से स्नान करने से कठोर शरीर वाले / अंबुभक्खिणो—जल भक्षण करने वाले / वाउवासिणोवायु में रहने वाले / वक्कवासिणो-वल्कलवस्त्रधारी। परिसडिय-सड़े हुए। पंचम्गितावेहि पंचाग्नितापों से / इंगालसोल्लियं-अंगारों से अपने शरीर को जलाने वाले। कंदुसोलियंभड़भूजे के भाड़ में पकाए हुए के समान / कट्ठसोल्लियं पिक---काष्ठ के समान शरीर को बनाने बाले / दिसापोक्खिय-दिशाप्रोक्षक-जल द्वारा दिशाओं का पूजन करने के पश्चात् फल-पुष्पादि ग्रहण करने वाले / दिक्चक्रवाल तपःकर्म का लक्षण--एक जगह पारणे में पूर्व दिशा में जो फल हों, उन्हें ग्रहण करके खाए जाते हैं, फिर दूसरी जगह दक्षिण दिशा में, इसी तरह क्रमश: सभी दिशाओं में जिस तपःकर्म में पारणा किया जाता है, उसे दिक्चक्रवाल तपःकर्म कहते हैं। शिवभद्रकुमार का राज्याभिषेक और राज्य-ग्रहण 7. तए णं से सिवे राया दोच्चं पि कोडुबियपुरिसे सद्दावेति, स० 2 एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सिवभहस्स कुमारस्स महत्थं महाधं महरिहं विउलं रायाभिसेयं उबढवेह / [7] उसके पश्चात् उस शिव राजा ने दूसरी बार भी कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और फिर उनसे कहा—'हे देवानुप्रियो ! शिवभद्र कुमार के महार्थ, महामूल्यवान् और महोत्सवयोग्य विपुल राज्याभिषेक की शीघ्र तैयारी करो।' 8. तए णं ते कोड बियपुरिसा तहेव उवट्ठति / [8] तदनन्तर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा के आदेशानुसार राज्याभिषेक की तैयारी की। 9. तए णं से सिवे राया अणेगगणनायग-दंडनायग जाव संधिपाल सद्धि संपरिवुडे सिवभई 1. बियाहपण्णत्तिसूतं (मूलपाठ-टिप्पण) भाग. 2, पृ.५१७-५१८ 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 519 3. वही, अ. वृत्ति, पत्र 519-520 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org