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________________ विजय जी,२३४ देवचन्द्र जी२२५ आदि श्वेताम्बर विज्ञों ने दोनों पक्षों का उल्लेख किया है किन्तु दिगम्बर प्राचार्य कुन्दकन्द,२२६ पूज्यपाद, 27 भदारक अकलंकदेव, 228 विद्यानन्द स्वामी 226 ग्रादि ने केवल द्वितीय पक्ष को ही माना है। वे काल को एक स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं / प्रथम मत यह है कि समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन-रात आदि जो भी व्यवहार काल-साध्य हैं वे सभी पर्याय-विशेष के संकेत हैं। पर्याय, यह जीव-अजीद की क्रिया-विशेष है जो किसी भी तत्त्वान्तर की प्रेरणा के विना होती है, अर्थात जीव-अजीव दोनों अपने-अपने पर्याय रूप में स्वतः ही परिणत हुआ करते हैं अतः जीवप्रजीव के पर्याय-पुञ्ज को ही काल कहना चाहिए / काल अपने-पाप में कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है / 230 द्वितीय मत यह है कि जैसे जीव और पुद्गल स्वयं ही गति करते हैं और स्वयं ही स्थिर होते हैं, उनकी गति और स्थिति में निमित्त रूप से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं, वैसे ही जीव और अजीव में पर्याय-परिणमन का स्वभाव होने पर भी उसके निमित्तकारण रूप काल द्रव्य को मानना चाहिए / उक्त दोनों कथन परस्पर विरोधी नहीं किन्तु सापेक्ष हैं। निश्चय दृष्टि से काल जीव-अजीव की पर्याय है और व्यवहार दृष्टि से वह द्रव्य है / उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व-अपरत्व ये काल के उपकारक हैं। इन्हीं के कारण वह द्रव्य माना जाता है। उसका व्यवहार पदार्थों की स्थिति आदि के लिए होता है। निश्चय दृष्टि से काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने की प्रावश्यकता नहीं है। उसे जीव और अजीव के पर्यायरूप मानने से ही सभी कार्य व सभी व्यवहार सम्पन्न हो सकते हैं। व्यवहार की दृष्टि से ही उसे स्वतन्त्र द्रव्य माना है और उसे पृथक द्रव्य गिनाया गया है एवं उसे जीवाजीवात्मक भी कहा है। 33 वेद व उपनिषदों में काल शब्द का प्रयोग अनेक स्थलों पर हुमा है, किन्तु वैदिक महर्षियों का काल के सम्बन्ध में क्या मन्तव्य है. यह स्पष्ट नहीं होता। वैशेषिकदर्शन का यह मन्तव्य है कि काल दुव्य है. नित्य है, एक है और सम्पणं कायों का निमित्त है।३४ न्यायदर्शन में काल के सम्बन्ध में वैशेषिकवर्शन का ही 224. लोकप्रकाश 225. नयचक्रसार और आगमसार ग्रन्थ देखें 226. प्रवचनसार प्र. 2, गाथा 46-47 227. तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि 138-39 228. तत्त्वार्थ राजवार्तिक 5 / 38-39 229. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, 5138-39 230. दर्शन और चिन्तन, पृ. 331, पं. सुखलाल जी 231. दर्शन और चिन्तन, पृ. 332 पं. सुखलाल जी 232. (क) भगवती 2 / 10 / 120; 111111424; 13 / 4 / 483 इत्यादि (ख) प्रज्ञापनापद 1 (ग) उत्तराध्ययन 28 / 10 233. स्थानाङ्गसूत्र 95 234. वैशेषिकदर्शन 2016 से 9 [65) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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