________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [489 रखकर पहली पृथ्वी में दो से लेकर दस तक एवं संख्यात पद का संयोग करने पर दस भंग होते हैं / ये सब मिलकर 21 भंग होते हैं। इन 21 विकल्पों के साथ पूर्वोक्त सात नरकों के विकसंयोगी 35 भंगों को गुणा करने पर त्रिकसंयोगी कुल 735 भंग होते हैं / चतुःसंयोगी 1085 भंग-पहले की चार नरकपृथ्वियों के साथ क्रमश: 1-1-1 और संख्यात इस प्रकार प्रथम भंग होता है / इसके बाद पूर्वोक्त क्रम से तीसरी नरक में, दो से लेकर संख्यात पद तक का संयोग करने से दूसरे 10 विकल्प बनते हैं / इसी प्रकार दूसरी नरकपृथ्वी में और प्रथम नरकपृथ्वी में भी दो से लेकर संख्यात पद तक का संयोग करने से बीस विकल्प होते हैं। ये सभी मिल कर 31 विकल्प होते हैं / इन 31 विकल्पों के साथ सात नरकों के चतु:संयोगी पूर्वोक्त 35 विकल्पों को गुणा करने पर कुल 1085 भंग होते हैं / पंचसंयोगी 861 भंग-प्रथम की पाँच नरकभूमियों के साथ 1-1-1-1 और संख्यात, इस क्रम से पहला भंग होता है / इसके पश्चात् पूर्वोक्त क्रम से चौथी नरकभूमि में अनुक्रम से दो से लेकर संख्यात-पद तक का संयोग करना चाहिए। इसी प्रकार तीसरी, दूसरी और पहली नरकपृथ्वी में भी दो से लेकर संख्यात-पद तक का संयोग करना चाहिए / इस प्रकार सब मिल कर पंचसंयोगी 41 भंग होते हैं / उनके साथ पूर्वोक्त 7 नरक सम्बन्धी पंचसंयोगी 21 पदों का गुणा करने से कुल 861 भंग होते हैं। षट्संयोगी 357 भंग-घट्संयोग में पूर्वोक्त क्रमानुसार 51 भंग होते हैं / उनके साथ सात नरकों के षट्संयोगी पूर्वोक्त 7 पदों का गुणा करने से कुल 357 भंग होते हैं। सप्तसंयोगी 61 भंग-पूर्वोक्त रीति से 61 भंग समझने चाहिए / इस प्रकार संख्यात नयिक जीवां--प्राश्रयी 7+231+735+1085+861+357+61 = 3337 231+ 735+ 1085+861+357261 = 3337 कुल' भंग होते हैं। असंख्यात नरयिकों के प्रवेशनकभंग 27. असंखेज्जा भंते ! नैरइया नेरइयपवेसणएण० पुच्छा। गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा 7 / अहवा एगे रयण, असंखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा / एवं दुयासंजोगो जाव सत्तगसंजोगो य जहा संखिज्जाणं भणिओ तहा असंखेज्जाण विभाणियब्बो, नवरं असंखेज्जानो अब्भहियो भाणियव्यो, सेसं तं चेव जाव सत्तगसंजोगस्स पच्छिमो पालावगो---अहवा असंखेज्जा रयण असंखेज्जा सक्कर० जाव असंखेज्जा प्रसत्तमाए होज्जा। [27 प्र] भगवन् ! असंख्यात नैरयिक, नैरयिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [27 उ.] गांगेय ! वे रत्नप्रभा में होते हैं, अथवा यावत् अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं, अथवा एक रत्नप्रभा में और असंख्यात शर्कराप्रभा में होते हैं / 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुतं (मूलपाठ--टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 440 (ख) भगवती. विवेचनयुक्त (पं घेवरचन्दजी) भा. 4, प. 1660-1661 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org