________________ प्रथम शतक : उद्देशक-] [153 [प्र. भगवन् ! ग्राप ऐसा किस हेतु से कहते हैं ? [उ.] गौतम ! (इन चारों की) अविरति को लेकर, ऐसा कहा जाता है कि श्रेष्ठी और दरिद्र, कृपण (रंक) और राजा (क्षत्रिय) इन सबकी अप्रत्याख्यानक्रिया (प्रत्याख्यानक्रिया से विरति या तज्जन्यकर्मबन्धता) समान होती है। विवेचन-चारों में अप्रत्याख्यानक्रिया समानरूप से---प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि चाहे कोई बड़ा नगरसेठ हो, या दरिद्र, रंक हो या राजा, इन चारों में बाह्य असमानता होते हुए भी अविरति के कारण चारों को अप्रत्याख्यानक्रिया समानरूप से लगती है। अर्थात् सबको प्रत्याख्यानक्रिया के अभावरूप अप्रत्याख्यान (अविरति) क्रिया के कारण समान कर्मबन्ध होता है / वहाँ राजा-रंक आदि का कोई लिहाज नहीं होता।' आधाकर्म एवं प्रासुक-एषणीयादि प्राहारसेवन का फल 26. आहाकम्म णं भुजमाणे समणे निग्गथे कि बंधति ? कि पकरेति ? कि चिणाति ? कि उचिणाति? गोयमा ! प्राहाकम्मं णं भुजमाणे पाउयवज्जानो सत्त कम्पप्पगडीयो सिढिलबंधणबद्धाम्रो घणियबंधणबद्धामो पकरेइ जाव अणुपरियट्टइ / से केण?णं जाव अणुपरियट्टइ ? गोयमा ! आहाकम्मं गं भुजमाणे प्रायाए धम्म प्रतिक्कमति, प्रायाए धम्म अतिक्कममाणे पुढविक्कायं णावखति जाव तसकायं णावखति, जेसि पि य णं जीवाणं सरीराई प्राहारमाहारेइ ते वि जीवे नावकखति / से तेण?णं गोयमा! एवं वुच्चइ-माहाकम्मं गं जमाणे पाउयवज्जाप्रो सत्त कम्मपगडीअो जाव प्रणुपरियति / [26 प्र. भगवन् ! प्राधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हुमा श्रमणनिर्ग्रन्थ क्या बांधता है ? क्या करता है ? किसका चय (वृद्धि) करता है, और किसका उपचय करता है ? 26 उ. गौतम ! प्राधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमणनिम्रन्थ आयुकर्म को छोड़कर शिथिलबन्धन से बंधी हुई सात कर्मप्रकृतियों को दृढ़बन्धन से बँधी हुई बना लेता है, यावत्-संसार में बार-बार पर्यटन करता है / प्र] भगवन् ! इसका क्या कारण है कि, यावत्--वह संसार में बार-बार पर्यटन करता है? _ [उ.] गौतम ! आधाकर्मी आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमनिर्ग्रन्थ अपने आत्मधर्म का अतिक्रमण करता है। अपने प्रात्मधर्म का अतिक्रमण करता हुअा (साधक) पृथ्वीकाय के 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 101 2. 'जान' पद से--सिढिलबंधणबद्धाओघणिय बंधणबद्धाओ पक रेइ, हस्सकालठितियाओ दोहकालाठितियाओ पकरेइ, मंदाणुभावाओ तिव्वावणुभावानो पकरेइ, अप्पपएसगाओ बहुपएसग्गाओ पकरेइ, आउयं च कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, अस्सायावेदणज्जच गं कम्म भजो भज्जो उचिणइ, अणाइयं च णं अणवयम्गं दीहमद्ध चाउरंतसंसारकंतारं,'....यहां तक का पाठ समझना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org