________________ 154 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के जीवों की अपेक्षा (परवाह) नहीं करता, और यावत्-त्रसकाय के जीवों की चिन्ता (परवाह) नहीं करता और जिन जीवों के शरीरों का वह भोग करता है, उन जीवों की भी चिन्ता नहीं करता। इस कारण हे गौतम! ऐसा कहा गया है कि प्राधाकर्मदोषयुक्त आहार भोगता हुआ (श्रमण) आयुकर्म को छोड़कर सात कर्मों की शिथिलबद्ध प्रकृतियों को गाढ़बन्धन बद्ध कर लेता है, यावत्-संसार में बार-बार परिभ्रमण करता है। 27. फासुएसणिज्जं णं भंते ! भुजमाणे कि बंधइ जाव उवचिणाइ ? गोयमा ! फासुएसणिज्ज णं भुजमाणे प्राउयवज्जाप्रो सस कम्मपयडीसो घणियबंधणबद्धाम्रो सिढिलबंधणबद्धामो पकरेइ जहा संबुड़े णं ( स०१ उ०१ सु. 11 [2] ), नवरं पाउयं च णं कम्म सिय बंधइ, सिय नो बंधाई / सेसं तहेव जाव वीतीवति / से केण?ण जाव वीतीवयति ? गोयमा ! फासुएसणिज्ज भुजमाणे समणे निम्नथे प्राताए धम्म णाइक्कमति, आताए धम्म अणतिक्कममाणे पुढविक्कायं अवखति जाव तसकायं प्रवखति, जेसि पि य णं जीवाणं सरीराई पाहारेति ते वि जोवे अवकंखति, से तेणटणं जाव बीतीवयति। [27 प्र.] हे भगवन् ! प्रासुक और एषणीय आहारादि का उपभोग करने वाला श्रमणनिर्गन्थ क्या बाँधता है ? यावत् किसका उपचय करता है ? [27 उ. गौतम ! प्रासुक और एषणीय आहारादि भोगने वाला श्रमणनिर्ग्रन्थ, आयुकर्म को छोड़कर सात कर्मों की दृढ़बन्धन से बद्ध प्रकृतियों को शिथिल करता है। उसे संवत अनगार के समान समझना चाहिए / विशेषता यह है कि आयुकर्म को कदाचित् बाँधता है और कदाचित् नहीं बांधता / शेष उसी प्रकार समझना चाहिए; यावत् संसार को पार कर जाता है। [प्र.] 'भगवन् ! इसका क्या कारण है कि-यावत्-संसार को पार कर जाता है ?' उ गौतम ! प्रासुक एषणीय आहारादि भोगने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ, अपने आत्मधर्म का उल्लंघन नहीं करता / अपने प्रात्मधर्म का उल्लंघन न करता हुआ वह श्रमणनिग्रन्थ पृथ्वी काय के जीवों का जीवन चाहता है, यावत्-त्रसकाय के जीवों का जीवन चाहता है और जिन जीवों का शरीर उसके उपभोग में आता है, उनका भी वह जीवन चाहता है। इस कारण से हे गौतम ! वह यावत्-संसार को पार कर जाता है। विवेचन–प्राधाकर्मी एवं एषणीय आहारादि-सेवन का फल-प्रस्तुत दो सूत्रों में क्रमश आधाकर्मदोषयुक्त एवं प्रासुक एषणीय आहारादि के उपभोग का फल बताया गया है / प्रासुकादिशब्दों के अर्थ प्रासुक-अचित्त, निर्जीव / एषणीय आहार आदि से सम्बन्धित दोषों से रहित / प्राधाकर्म-साधु के निमित्त सचित्त वस्तु को अचित्त की जाए अर्थात् सजीव वस्तु को निर्जीव बनाया जाए, अचित्त वस्तु को पकाया जाए, घर मकान आदि बंधवाए जाएँ, वस्त्रादि बनवाए जाएँ, इसे आधाकर्म कहते हैं / 'बंधई' आदि पदों के भावार्थ-बंधइ यह पद प्रकृतिबन्ध की अपेक्षा से, या स्पृष्टबन्ध को अपेक्षा से है, पकरइ पद स्थितिबन्ध अथवा बद्ध अवस्था को अपेक्षा से है, 'चिणई' पद अनुभागबन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org