________________ प्रथम शतक : उद्देशक- [ 155 की अपेक्षा से अथवा निधत्त अवस्था की अपेक्षा से है। 'उचिणइ' पद प्रदेशबन्ध की अपेक्षा अथवा निकाचित अवस्था की अपेक्षा से है / ' स्थिर-अस्थिरादि-निरूपण-- 28. से नणं भंते ! अथिरे पलोट्टति, नो थिरे पलोदृति प्रथिरे भज्जति, नो थिरे मज्जति; सासए, बालए, बालियत्तं प्रसासयं; सासते पंडिते, पंडितत्तं प्रसासतं? हंता, गोयमा ! अथिरे पलोदृति जाव पंडितत्तं प्रसासतं / सेवं भंते ! सेवं भंते ति जाव विहरति / // नवमो उद्दे सो समतो // [28. प्र] भगवन् ! क्या अस्थिर पदार्थ बदलता है और स्थिर पदार्थ नहीं बदलता है ? क्या अस्थिर पदार्थ भंग होता है और स्थिर पदार्थ भंग नहीं होता ? क्या बाल शाश्वत है तथा बालत्व अशाश्वत है ? क्या पण्डित शाश्वत है और पण्डितत्व प्रशाश्वत है ? [28. उ.] हाँ, गौतम ! अस्थिर पदार्थ बदलता है यावत् पण्डितत्व अशाश्वत है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है; भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! ; यों कहकर यावत् गौतम स्वामी विचरण करते हैं / विवेचन -स्थिर-अस्थिरादि-निरूपण-प्रस्तुत सूत्र में अस्थिर एवं स्थिर पदार्थों के परि• वर्तन होने, न होने, भंग होने, न होने तथा बाल और पण्डित के शाश्वतत्व एवं बालत्व तथा पण्डितत्व के अशाश्वतत्व की चर्चा की गई है। 'प्रथिरे पलोद्रई' प्रादि के दो अर्थ-व्यवहारपक्ष में पलट जाने वाला अस्थिर होता है। जैसे मिट्टी का ढेला आदि अस्थिर द्रव्य अस्थिर हैं। अध्यात्मपक्ष में कर्म अस्थिर हैं, वे प्रतिसमय जीवप्रदेशों से चलित-पृथक होते हैं / कर्म अस्थिर होने से बन्ध, उदय और निर्जीर्ण आदि परिणामों द्वारा वे बदलते रहते हैं। व्यवहारपक्ष में पत्थर की शिला स्थिर है, वह बदलती नहीं, अध्यात्मपक्ष में आत्मा स्थिर है। व्यवहारपक्ष में तृणादि नश्वर स्वभाव के हैं, इसलिए भग्न हो जाते हैं, अध्यात्मपक्ष में कर्म अस्थिर होने से भग्न हो जाते हैं / जीव का प्रकरण होने से व्यवहारपक्ष में अबोध बच्चे को बाल कहते हैं, अध्यात्मपक्ष में असंयत अविरत को बाल कहते हैं। यह जीव द्रव्य रूप होने से शाश्वत है और बालत्व, पण्डितत्व आदि जीव की पर्याय होने से अशाश्वत हैं / 2 / / प्रथम शतक : नवम उद्देशक समाप्त / / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 101-102 2. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 102 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org