________________ 152] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 'कट्टसेज्जा' के तीन अर्थ-काष्ठशय्या, कष्टशय्या, अथवा अमनोज्ञवसति / स्थविरों के उत्तर का विश्लेषण-स्थविरों का उत्तर निश्चयनय की दृष्टि से है। गुण और गुणो में तादात्म्य-अभेदसम्बन्ध होता है / इस दृष्टि से आत्मा (गुणो) और सामायिक (गुण) अभिन्न हैं / प्रात्मा को सामायिक आदि और सामायिक प्रादि का अर्थ कहना इस (निश्चय) दृष्टि से युक्तियुक्त है। व्यवहारनय की अपेक्षा से प्रात्मा और सामायिक आदि पृथक-पृथक होने से सामायिक आदि का अर्थ इस प्रकार होगा सामायिक-शत्रु-मित्र पर समभाव / प्रत्याख्यान-नवकारसी, पौरसी आदि का नियम करना / संयम-पृथ्वीकायादि जीवों को यतना-रक्षा करना। संवर-पाँच इन्द्रियों तथा मन को वश में रखना। विवेक-विशिष्ट बोध-ज्ञान / व्युत्सर्ग-शारीरिक हलन-चलन बन्द करके उस पर से ममत्व हटाना / इनका प्रयोजन--सामायिक का अर्थ-नये कर्मों का बन्ध न करना, प्राचीन कर्मों की निर्जरा करना / प्रत्याख्यान का प्रयोजन-प्रास्रवद्वारों को रोकना। संयम का प्रयोजन-प्रासबरहित होना / संबर का प्रयोजन-इन्द्रियों और मन की प्रवृत्ति को रोक कर प्रास्रवरहित होना। विवेक का प्रयोजन---हेय का त्याग, ज्ञेय का ज्ञान और उपादेय का ग्रहण करना / व्युत्सर्ग का प्रयोजन-सभी प्रकार के संग से रहित हो जाना / ___ गर्दा संयम कैसे ?--संयम में हेतुरूप होने तथा कर्मबन्ध में कारगरूप न होने से गर्दा संयम है।' चारों में अप्रत्याख्यानक्रिया : समानरूप से 25. भंते !' ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वदति नमंसति, 2 एवं वदासी-से नणं भंते ! सेद्विस्स य तणुयस्स य किविणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ ? हंता, गोयमा ! सेस्सि य जाव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ। से केणढणं भंते !? गोयमा ! अविरति पडुच्च; से तेणढणं गोयमा ! एवं बुच्चइ सेट्ठिस्स य तणु० जाव कज्जई। [25 प्र.] 'भगवन् !' ऐसा कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को बन्दन-नमस्कार किया। तत्पचात् (वन्दन-नमस्कार करके) वे इस प्रकार बोले-भगवन् ! क्या श्रेष्ठी (स्वर्णपट्टविभूषित पगड़ी से युक्त पौरजननायक-नगर सेठ, श्रीमन्त) और दरिद्र को, रंक को और क्षत्रिय (राजा) को अप्रत्याख्यान क्रिया (प्रत्याख्यानक्रिया का अभाव अथवा अप्रत्याख्यानजन्य कर्मबन्ध) समान होती है ? [25 उ.] हाँ, गौतम ! श्रेष्ठी यावत् क्षत्रिय राजा (इन सब) के द्वारा अप्रत्याख्यान क्रिया (प्रत्याख्यान क्रिया का प्रभाव) समान की जाती है; (अर्थात्-अप्रत्याख्यानजन्य कर्मबन्ध भी समान होता है।) 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति पत्रांक 100 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org