________________ प्रथम शतक : उद्देशक-९] [ 151 23. [1] तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवंते वंदइ नमसइ, 2 एवं वदासीइच्छामि गंभंते ! तुम्भं अंतिए चाउज्जामानो धम्मानो पंचमहब्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपजित्ताणं विहरित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह / [23-1] तत्पश्चात् कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने उन स्थविर भगवन्तों को वन्दना की, नमस्कार किया, और तब वह इस प्रकार बोले-'हे भगवन् ! पहले मैंने (भ० पार्श्वनाथ का) चातुर्यामधर्म स्वीकार किया है, अब मैं आपके पास प्रतिक्रमणसहित पंचमहावतरूय धर्म स्वीकार करके विचरण करना चाहता हूँ।' (स्थविर--) 'हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसे करो / परन्तु (इस शुभकार्य में) विलम्ब (प्रतिबन्ध) न करो।' [2] तए णं से कालसवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवते वंदइ नमसइ, बंदित्ता, नमंसित्ता चाउज्जामानो धम्माप्रो पंचमहव्वयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / [23-2] तदनन्तर कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने स्थविर भगवन्तों को बन्दना की, नमस्कार किया, और फिर चातुर्याम धर्म के स्थान पर प्रतिक्रमणसहित पंचमहाव्रत वाला धर्म स्वीकार किया और बिचरण करने लगे। 24. तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे बहूणि वासाणि सामग्णपरियागं पाउणइ, 2 जस्सट्टाए कोरति नग्गभावे मुण्डभावे अण्हाणयं अदंतधुवणयं अच्छत्तयं अणोवाहणयं भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कटुसेज्जा केसलोओ बंभचेरवासो परघरपवेसो लद्धावलद्धी, उच्चावया गामकंटगा बावीसं परिसहोवसग्गा अहियासिज्जंति तमट्ठपाराहेइ, 2 चरमेहि उस्सास-नोसासेहिं सिद्ध बुद्ध मुक्के परिनिम्बुडे सन्चदुक्खप्पहोणे। [24] इसके पश्चात् कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय (साधुत्व) का पालन किया और जिस प्रयोजन से नग्नभाव, मुण्डभाव, अस्नान, अदन्तधावन, छत्रवर्जन, पैरों में जूते न पहनना, भूमिशयन, फलक (पट्ट) पर शय्या, काष्ठ पर शयन, केशलोच, ब्रह्मचर्यवास, भिक्षार्थ गहस्थों के घरों में प्रवेश, लाभ और अलाभ (सहना) (अभीष्ट भिक्षा प्राप्त होने पर हषित न होना और भिक्षा न मिलने पर खिन्न न होना), अनुकूल और प्रतिकूल, इन्द्रियसमूह के लिए काटकसम चुभने वाले कठोर शब्दादि इत्यादि 22 परीषहों को सहन करना, इन सब (साधनाओं) का स्वीकार किया, उस अभीष्ट प्रयोजन की सम्यक रूप से आराधना की / और वह अन्तिम उच्छ्वास-नि:श्वास द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए और समस्त दुःखों से रहित हुए / - विवेचन-पापित्यीय कालास्यवेषिपुत्र का स्थविरो द्वारा समाधान और हृदय-परिवर्तन-- प्रस्तुत चार सूत्रों में पार्श्वनाथ भगवान के शिष्यानुशिष्य कालास्यवेषिपुत्र अनगार द्वारा भगवान् महावीर के श्रु तस्थविर शिष्यों से सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक और व्युत्सर्ग एवं इनके अर्थों के सम्बन्ध में की गई शंकानों का समाधान एवं अन्त में कृतज्ञता-प्रकाशपूर्वक विनयसहित सप्रतिक्रमण पंचमहानत धर्म के स्वीकार का वर्णन है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org