________________ 150 ] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रात्मा ही व्युत्सर्ग है तथा प्रात्मा ही व्युत्सर्ग का अर्थ है, तो आप क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करके क्रोधादि की गहीं-निन्दा क्यों करते हैं ?' [21-5 उ.] हे कालास्यवेषिपुत्र ! हम संयम के लिए क्रोध आदि को गहीं करते हैं / [6] से भंते ! कि गरहा संजमे ? प्रगरहा संजमे ? कालास. ! गरहा संजमे, नो अगरहा संजमे, गरहा वि य णं सव्वं दोसं पविणेति, सब्ध बालियं परिणाए एवं खुणे प्राया संजमे उवहिते भवति, एवं खुणे प्राधा संजमे उवचिते भवति, एवं खु णे पाया संजमे उवद्विते भवति / [21-6 प्र.] तो 'हे भगवन् ! क्या गर्दा (करना) संयम है या अगहा (करना) संयम है ?' [21-6 उ.] हे कालास्थवेषिपुत्र ! गर्दा (पापों को निन्दा) संयम है, अगर्दा संयम नहीं है / गर्हा सब दोषों को दूर करती है-आत्मा समस्त मिथ्यात्व को जान कर गर्दा द्वारा दोषनिवारण करता है / इस प्रकार हमारी प्रात्मा संयम में पुष्ट होती है, और इसी प्रकार हमारी प्रात्मा संयम में उपस्थित होती है। 22. [1] एस्थ णं से कालासवेसिययुत्ते अणगारे संबुद्ध थेरे भगवते वंदति णमंसति, 2 एवं क्यासी--एतेसि णं भंते ! पदाणं पुदिव अण्णाणयाए प्रसवणयाए अबोहीए प्रणभिगमेणं अदिट्ठाणं अस्सुताणं अमुताणं अविण्णायाणं अव्वोगडाणं प्रयोच्छिन्नाणं अणिज्जढाणं अणुवधारिताणं एतम? णो सद्दहिते, जो पत्तिए, णो रोइए। इदाणि भंते ! एतेषि पदाणं जाणताए सबणताए बोहोए अभिगमेणं दिट्ठाणं सुताणं मुयाणं विण्याताणं वोगडाणं वाच्छिनाणं पिज्जढाणं उवधारिताणं एतनहुँ सद्दहामि, पत्तियामि, रोएमि / एवमेतं से जहेयं तुन्भे वदह / [22-1] (स्थविर भगवन्तों का उत्तर सुनकर) वह कालास्यवेषिपुत्र अनगार बोध को प्राप्त हुए और उन्होंने स्थविर भगवन्तों को बन्दना को, नमस्कार किया, बन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'हे भगवन् ! इन (पूर्वोक्त) पदों को न जानने से, पहले सुने हुए न होने से, बोध न होने से अभिगम (ज्ञान) न होने से, दृष्ट न होने से, विचारित (सोचे हुए) न होने से, सुने हुए न होने से, विशेषरूप से न जानने से, कहे हुए न होने से, अनिर्णीत होने से, उद्धृत न होने से, और ये पद अवधारण किये हुए न होने से इस अर्थ में श्रद्धा नहीं की थी, प्रतोति नहीं की थो, रुचि नहीं को थो; किन्तु भगवन् ! अब इन (पदों) को जान लेने से, सुन लेने से, बोध होने से, अभिगम होने से, दृष्ट होने से, चिन्तित (चिन्तन किये हुए) होने से, श्रत (सुने हुए) होने से, विशेष जान लेने से, (आपके द्वारा) कथित हाने से, निणात होने से, उद्धृत हाने से और इन पदों का अवधारण करने से इस अर्थ (कथन) पर मैं श्रद्धा करता हूँ, प्रतोति करता हूँ; रुचि करता हूँ, हे भावन् ! आप जो यह कहते हैं, वह यथार्थ है, वह इसी प्रकार है।' [2] तए गं ते थेरा भगवंतो कालासवेसिययुतं अणगारं एवं वयासो-सहाहि अज्जो ! पत्तियाहि प्रज्जो ! रोएहि अन्जो ! से जहेतं प्रम्हे वदामो। [22-2] तब उन स्थविर भगवन्तों ने कालास्यवेषिपुत्र अनगार से इस प्रकार कहा-हे आर्य! हम जैसा कहते हैं उस पर वैसी हो श्रद्धा करो, आर्य ! उस पर प्रतोति करो, आर्य ! उसमें रुचि रखो।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org