________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [51| तब क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा"देवानुप्रियो ! शीघ्र ही श्रीघर (भण्डार) से तीन लाख स्वर्ण मुद्राएँ (सोनया) निकाल कर उनमें से एक-एक लाख सोनैया दे कर कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र ले प्रानो तथा (शेष) एक लाख सोनैया देकर नापित को बुलायो।" 52. तए णं ते कोड बियपुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा करयल जाव पडिसुणित्ता खिप्पामेव सिरिघरानो तिण्णि सयसहस्साई तहेव जाव कासवगं सहावैति / 52/ क्षत्रियकुमार जमालि के पिता को उपर्युक्त प्राज्ञा सुन कर वे कौटुम्बिक पुरुष बहुत ही हर्षित एवं संतुष्ट हुए / उन्होंने हाथ जोड़ कर यावत् स्वामी के वचन स्वीकार किये और शीघ्र ही श्रीघर (भण्डार) से तीन लाख स्वर्णमुद्राएँ निकाल कर कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र लाए तथा नापित को बुलाया। विवेचन-निष्क्रमणाभिषेक तथा दीक्षा के उपकरणादि की मांग-प्रस्तुत सु. 46 से 52 तक में जमालि के माता-पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा उसका निष्क्रमणाभिषेक कराया और फिर जमालि की इच्छानुसार रजोहरण, पात्र मंगवाए और नापित को बुलाया / ' निष्क्रमणाभिषेक---दीक्षा के पूर्व प्रवजित होने वाले व्यक्ति का माता-पिता आदि द्वारा स्वर्ण आदि के कलशों से अभिषेक (मस्तक पर जलसिंचन करके स्नान) कराना निष्क्रमणाभिषेक है / कठिन शब्दों का विशेषार्थ सिरिघरानो-श्रीधर भण्डार से / कासवगं= नापित को। भोजिज्जाणं-मिट्टी से बने हुए / सम्विड्डीएसमस्त छत्र आदि राजचिह्नरूप ऋद्धिपूर्वक / पयच्छामोविशेषरूप से क्या दें ? कुत्रिकापण----कुत्रिक, अर्थात् स्वर्ग, मर्त्य और पाताल तीनों पृश्चियों में संवित वस्तु मिलने वाली देवाधिष्ठित दुकान / ' 53. तए णं से कासवए जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणो कोडुबियपुरिसेहिं सहाविते समाणे हठे तुझे पहाए कयबलिकम्मे जाव सरीरे जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता करयल० जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पियरं जएणं विजएणं वद्धावेइ, जएणं विजएणं वद्वावित्ता एवं वयासो-संदिसंतु णं देवाणुपिया ! जे भए करणिज्ज / 53] फिर क्षत्रियकुमार जमालि के पिता के आदेश से कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा नाई को बुलाए जाने पर वह बहुत ही प्रसन्न और तुष्ट हुआ / उसने स्नानादि किया, यावत् शरीर को अलंकृत किया, फिर जहाँ क्षत्रियकुमार जमालि के पिता थे, वहाँ आया और उन्हें जय-विजय शब्दों से बधाया, फिर इस प्रकार कहा--'हे देवानुप्रिय ! मुझे करने योग्य कार्य का आदेश दीजिये / " 1. वियाह्मणत्तिसुत्तं (मू. पा. टिप्पण) भा. 1, पृ. 465-466 2. भगवती. अ. वृत्ति., पत्र 476. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org