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________________ 78] [म्याख्याप्राप्तिसूत्र कति-अकति-प्रवक्तव्य-संचित यथायोग्य चौवीस दण्डकों और सिद्धों के अल्पबहुत्व की प्ररूपरणा 26. एएसि गं भंते ! नेरइयाणं कतिसंचिताणं प्रकतिसंचियाणं अवत्तवगसंचिताण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? सम्वत्थोवा नेरइया अवत्तव्वगसंचिता, कतिसंचिया संखेज्जगुणा, प्रकतिसंचिता असंखेज्जगुणा। [29 प्र.] भगवन् ! इन कतिसंचित, अकतिसंचित और प्रवक्तव्यसंचित नैरयिकों में से कौन किससे (अल्प, अधिक, तुल्य अथवा) यावत् विशेषाधिक हैं ? [29 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े प्रवक्तव्यसंचित नैरयिक हैं, उनसे कतिसंचित नरयिक संख्यातगुणे हैं और अकतिसंचित उनसे असंख्यातगुणे हैं / 30. एवं एगिदियवज्जाणं जाव वेमाणियाणं अप्पाबहुगं, एगिदियाणं नस्थि प्रप्पावहगं। [30 | एकेन्द्रिय जीवों के सिवाय यावत् वैमानिकों तक का इसी प्रकार (नैरयिकवत्) अल्पबहुत्व कहना चाहिए / एकेन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व नहीं है। 31. एएसि णं भंते ! सिद्धाणं कतिसंचियाणं, प्रवत्तव्वगसंचिताण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा सिद्धा कतिसंचिता, प्रवत्तम्वगसंचिता संखेज्जगुणा / [31 प्र.] भगवन् ! कतिसंचित और प्रवक्तव्यसंचित सिद्धों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? [31 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े कतिसंचित सिद्ध होते हैं, उनसे प्रवक्तव्यसंचित सिद्ध संख्यातगुण हैं। विवेचन--कतिसंचितादि का अल्पबहुत्व-एकेन्द्रिय को छोड़कर शेष समस्त संसारी जीवों में सबसे थोड़े जो प्रवक्तव्यसंचित बतलाए हैं, वे इसलिए कि अवक्तव्यस्थान एक ही है। उनसे कतिसंचित संख्यातगणे हैं, क्योंकि उनके संख्यात स्थान हैं और उनसे प्रकतिसंचित असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनके असंख्यात स्थान हैं। प्रश्न होता है, फिर सिद्धों में कतिसंचित सिद्ध सबसे थोड़े क्यों बतलाए हैं ? कुछ प्राचार्य इसका समाधान यों देते हैं कि इस (अल्पबहुत्व) में स्थान की अल्पता कारण नहीं है, वस्तुस्वभाव ही ऐसा है। कतिसंचित स्थान प्रवक्तव्यसंचित स्थान से बहुत होने पर भी सिद्धों में कतिसंचित सिद्ध सबसे थोड़े बताए हैं और अवक्तव्यसंचित स्थान एक होने पर भी प्रवक्तव्यसंचित सिद्ध उनसे संख्यातगुणे अधिक हैं; क्योंकि दो आदि रूप से केवली अल्पसंख्या में सिद्ध होते हैं। अतः वस्तुस्वभाव और लोकस्वभाव ऐसा ही है, यह मानना चाहिए।' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 799 (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचंदजी) भा. 6, पृ. 2925 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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