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________________ 538] [व्याख्याज्ञप्तिसूत्र नहीं होता, क्योंकि जो जीव वेदनीयकर्म का प्रबन्धक हो जाता है, वह फिर वेदनीयकर्म का बन्ध नहीं करता / चौथा भंग अयोगीकेवली की अपेक्षा से है / इस प्रकार वेदनीयकर्मबन्ध में तीसरे भंग के सिवाय शेष तीन भंग घटित होते हैं। सलेश्यीजीव में यहाँ तीसरे भंग को छोड़कर शेष तीन भंग बताए हैं, किन्तु उसमें चौथा भंग (वेदनीयकर्म बांधा था, नहीं बांधता है, नहीं बांधेगा) कैसे घटित होना सम्भव है, क्योंकि लेश्या तेरहवें गुणस्थान तक होती है / अतः वहाँ तक सलेश्यीजीव वेदनीयकर्म का बन्धक होता है, तब फिर अबन्धक कैसे हो सकता है ? कतिपय प्राचार्य इसका समाधान यों करते हैं इस सूत्र के प्रमाण (वचन) के अनुसार अयोगी-अवस्था के प्रथम समय में 'घंटालालान्यायेन' परम शूक्ललेश्या होती है, इसलिए सलेश्यी में भी चतुर्थ भंग घटित हो सकता है / तत्त्व केवलिगम्य है / कृष्णादि पांच लेश्या वाले जीवों में अयोगीपन का अभाव होने से वेदनीयकर्म के प्रबन्धक नहीं होते / अतएव उनमें पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं / शुक्ललेश्यी जीव में सलेश्या के समान पूर्वोक्त तीन भंग ही होते हैं। अलेश्यीजीव तो केवली और सिद्ध होते हैं, अत: उनमें केवल चतुर्थ भंग ही पाया जाता है / कृष्णपाक्षिक जीवों में अयोगीपन का प्रभाव होने से उनमें अन्तिम दो भंग नहीं पाये जाते, प्रथम और द्वितीय, ये दो भंग ही पाये जाते हैं। शुक्लपाक्षिक जीव अयोगी भी होता है, इसलिए उसमें तीसरे भंग के सिवाय शेष तीनों भंग पाए जाते हैं। सम्यग्दृष्टिजीव में अयोगीपन सम्भव होने से उसमें तीसरे भंग को छोड़कर शेष तीनों भंग होते हैं / मिथ्यादष्टि और मिश्रदृष्टि में अयोगीपन का अभाव होने से वे वेदनीयकर्म के प्रबन्धक नहीं होते / अतएव उनमें पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं। ज्ञानी और केवलज्ञानी में अयोगी-अवस्था में चौथा भंग पाया जाता है, अतः उनमें तीसरे भंग के अतिरिक्त शेष तीनों भंग पाए जाते हैं। ग्राभिनिबोधिक आदि ज्ञान वाले जीवों में अयोगीपन का अभाव होने से उनमें चौथा भंग नहीं पाया जाता। उनमें पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं / इस प्रकार सभी स्थानों में यह समझ लेना चाहिए कि जहाँ अयोगी-अवस्था सम्भव है, वहाँ-वहाँ तीसरे भंग के सिवाय शेष तीन भंग पाए जाते हैं और जहाँ-जहाँ अयोगी-अवस्था सम्भव नहीं है, वहाँ-वहाँ पहला और दूसरा, ये दो भंग ही पाए जाते हैं। मोहनीयकर्मबन्ध-सम्बन्धी-मोहनीयकर्म एक प्रकार से पाप (अशुभ) कर्म ही है, इसलिए इसके ग्यारह स्थानों के वैमानिक देव-पर्यन्त चौवीस दण्डकों में पापकर्म के समान सभी पालापक कहने चाहिए।' जीव और:चौवीस दण्डकों में प्रायुष्यकर्म की अपेक्षा चतुर्भगीय-प्ररूपणा ग्यारह स्थानों में 63, जीवेणं भंते: आउयं कम्म कि बंधी बंधति० पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी० चउभंगो। [63 प्र.] भगवन ! क्या जीव ने आयुष्यकर्म बांधा था, बांधता है और बाधेगा? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / 1. (क) भगवती, (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3554-3556 (ख) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 931-932 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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