________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [291 [3] केवतिएहि पागासऽस्थिकाय? तेणेव संखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं / [45.3 प्र.] भगवन् ! आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [45-3 उ.] (गौतम ! ) उन्हीं संख्यात प्रदेशों को पाँच गुणे करके उनमें दो रूप और जोड़ें, उतने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं / [4] केवतिएहि जीवस्थिकाय ? अणतेहि / |45-4 प्र. (भगवन् ! ) वे जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [45-4 उ. (गौतम ! वे) अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। [5] केवतिएहि पोग्गलस्थिकाय ? अणंतेहि / [45-5 प्र. (भगवन् ! वे) पुद्गला स्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [45-5 उ. (गौतम ! वे) अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं / [6] केवतिएहि श्रद्धासमयेहि ? सिय पुढे', सिय नो पुढे जाव अणतेहिं / [45-6 प्र.] (भगवन् ! वे) अद्धाकाल के कितने समयों से स्पृष्ट होते हैं ? [45-6 उ.] (गौतम ! वे) कदाचित् स्पृष्ट होते हैं और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होते, यावत् अनन्त समयों से स्पृष्ट होते हैं / 46. [1] असंखेज्जा भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा केवतिएहि धम्मऽस्थि ? जहन्नपदे तेणेव असंखेज्जएणं दुगुणेणं दुरूवाहिएणं, उक्को० तेणेव असंखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं / [46-1 प्र.| भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [46-1 उ.] गौतम ! जघन्य पद में उन्हीं असंख्यात प्रदेशों को दुगुने करके उन में दो रूप अधिक जोड़ दें, उतने (धर्मास्तिकायिक) प्रदेशों से (पुद्गलास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश) स्पष्ट होते हैं और उत्कृष्ट पद में उन्हीं असंख्यात प्रदेशों को पांच गुणे करके उनमें दो रूप अधिक जोड़ दें, उतने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। [2] सेसं जहा संखेज्जाणं जाब नियम अणतेहिं / [46-2] शेष सभी वर्णन संख्यात प्रदेशों के समान जानना चाहिए, यावत् नियमत: अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org