________________ 292] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसून 47. अणता भंते ! पोग्गलऽस्थिकायपएसा केवतिएहि धम्मऽस्थिकाय ? एवं जहा असंखेज्जा तहा अणंता वि निरवसेसं / [47 प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [47 उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार असंख्यात प्रदेशों के विषय में कहा, उसी प्रकार अनन्त प्रदेशों के विषय में भी समस्त कथन करना चाहिए। 48 [1] एगे भंते ! अद्धासमए केवतिएहि धम्मऽस्थिकायपदेसेहि पु?? सत्तहि। [48-1 प्र.] भगवन् ! श्रद्धाकाल का एक समय धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [48-1 उ.] (गौतम ! वह) सात प्रदेशों से (स्पृष्ट होता है / ) [2] केवतिएहि अहम्मऽस्थि० ? एवं चेव / [48-2 प्र.] (भगवन् ! वह) अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से (स्पृष्ट होता है ? ) [48-2 उ.] पूर्ववत् (धर्मास्तिकाय के समान) जानना चाहिए / [3] एवं आगासऽस्थिकाएहि थि / [48-3] इसी प्रकार आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से (श्रद्धाकाल के एक समय की स्पर्शना के विषय में) भी (कहना चाहिए / ) [4] केवतिएहि जीव ? अणतेहिं / [48-4 प्र.] (भगवन् ! अद्धाकालिक एक समय) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट होता है ? [48-4 उ.] (गौतम ! वह) अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। [5] एवं जाव अद्धासमएहि / [48-5] इसी प्रकार यावत् अनन्त श्रद्धासमयों से स्पृष्ट होता है / 49. [1] धम्मऽस्थिकाए णं भंते ! केवतिहि धम्मऽस्थिकायपएसेहिं पुढे ? नस्थि एक्केण वि। [46-1 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय द्रव्य, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट होता है ? ___ [46-1 उ.] गौतम ! वह एक भी प्रदेश से स्पृष्ट नहीं होता / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org