________________ |293 तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [2] केवतिएहि अधम्माथिकायप्पएसहि० ? असंखेज्जेहि / [46-2 प्र.] (भगवन् ! वह) अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [46-2 उ.] (गौतम !) वह असंख्येय प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [3] केवतिएहि भागासऽस्थिकायप० ? असंखेज्जेहिं। [46-3 प्र. (भगवन् ! वह) अाकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [46-3 उ.] (गौतम ! वह) असंख्येय प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [4] केवतिहि जीवऽस्थिकायपए ? अणतेहि / [46-4 प्र.] (भगवन् ! वह) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [46-4 उ.] (गौतम ! वह उसके) अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। [5] केवतिएहि पोरंगलस्थिकायपएसेहि ? अणंतेहि। [49-5 प्र.] भगवन् ! वह) पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट होता है ? [49-5 उ.(गौतम ! वह उसके) अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [6] केवतिहि अद्धासमरहिल ? सिय पुढे सिय नो पुढे / जइ पुढे नियमा अणंतेहिं / [46-6 प्र.] (भगवन् ! वह) अद्धाकाल के कितने समयों से स्पष्ट होता है ? [46-6 उ.] (गौतम ! वह) कदाचित् स्पृष्ट होता है, और कदाचित् नहीं होता / यदि स्पृष्ट होता है तो (वह उसके) नियमतः अनन्त समयों से (स्पृष्ट होता है / ) 50. [1] अधम्मऽस्थिकाए णं भंते ! केव० धम्मस्थिकाय ? असंखेज्जेहि। [50-1 प्र.] भगवन् ! अधर्मास्तिकाय द्रव्य धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [50-1 उ.] (गौतम ! वह उसके) असंख्यात प्रदेशों से (स्पृष्ट होता है / ) [2] केवतिएहि अहम्मत्थि० ? नत्थि एक्केण वि। [50-2 प्र.] भगवन् ! वह अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [50-2 उ.] गौतम ! वह (अधर्मास्तिकायिक द्रव्य) उसके (अधर्मास्तिकाय के) एक भी प्रदेश से (स्पृष्ट नहीं होता / ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org