________________ 380] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र रहता है और देशबन्ध जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः एक समय कम तेतीस सागरोपम तक रहता है। 67. वाउक्काइयएगिदियउदिवय० पुच्छा। गोयमा ! सवबंधे एक्कं समयं; देसबंधे जहन्नेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / [67 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक-एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध कितने काल तक रहता है ? [67 उ.] गौतम ! इसका सर्वबन्ध जघन्यत: एक समय और उत्कृष्टतः दो समय तक रहता है, तथा देशबन्ध जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त तक रहता है / 68. [1] रयणप्पभापुढविनेरइय० पुच्छा। गोयमा ! सव्वबंधे एक्कं समयं; देसबंधे जहन्नेणं दसवाससहस्साई तिसमयऊणाई, उक्कोसेणं सागरोवमं समऊणं। [68-1 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वीनैरयिक-वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध कितने काल तक रहता है ? [68-1 उ.] गौतम ! इसका सर्वबन्ध एक समय तक रहता है, और देशबन्ध, जघन्यतः तीन समय कम दस हजार वर्ष तक तथा उत्कृष्टतः एक समय कम एक सागरोपम तक रहता है। [2] एवं जाव अहेसत्तमा / नवरं देसबंधे जस्स जा जहनिया ठितो सा तिसमयूणा कायव्वा, जा च उक्कोसिया सा समयूणा / [68-2] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम नरकपृथ्वी तक जानना चाहिए, किन्तु इतना विशेष है कि जिसकी जितनी जघन्य (आयु-) स्थिति हो, उसमें तीन समय कम जघन्य देशबन्ध तथा जिसकी जितनी उत्कृष्ट (अायु-) स्थिति हो, उसमें एक समय कम उत्कृष्ट देशबन्ध जानना चाहिए। 69. पंचिदियतिरिक्खजोणियाण मणुस्साण य जहा वाउक्काइयाणं / [66] पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य का कथन वायुकायिक के समान जानना चाहिए। 70. असुरकुमार-नागकुमार० जाव अणुत्तरोववाइयाणं जहा नेरइयाणं, नवरं जस्स जा ठिई सा भाणियन्वा जाव अणुत्तरोववाइयाणं सवबंधे एक्कं समयं; देसबंधे जहन्नेणं एक्कत्तीसं सागरोवमाइं तिसमयूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समयूणाई। [70] असुरकुमार, नागकुमार, यावत्-अनुत्तरौपपातिक देवों का कथन नैरयिकों के समान जानना चाहिए / परन्तु इतना विशेष है कि जिसकी जितनी स्थिति हो, उतनी कहनी चाहिए, यावत्--- अनुत्तरौपपातिक देवों का सर्वबन्ध एक समय तक रहता है तथा देशबन्ध जघन्य तीन समय कम इकतीस सागरोपम और उत्कृष्ट एकसमय कम तेतीस सागरोपम तक का होता है। 71. वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधंतरं णं भंते ! कालमो केवच्चिरं होइ? गोयमा! सब्यबंधतरं जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंतानो जाव प्रावलियाए असंखेज्जइमागो / एवं देसबंधंतरं पि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org