________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९ ] [ 389 [64 प्र.] भगवन् ! तैजसशरीरप्रयोगबन्ध कालतः कितने काल तक रहता है ? [94 उ.] गौतम ! तैजसशरीरप्रयोगबन्ध (कालतः) दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-(१) अनादि-अपर्यवसित और (2) अनादि-सपर्यवसित / 65. तेयासरीरप्पयोगबंधतरं गं भंते ! कालो केवच्चिर होइ ? गोयमा ! प्रणाईयस्स अपज्जवसियस्स नस्थि अंतरं, प्रणाईयस्स सपज्जवसियस्स नस्थि अंतरं। [65 प्र.] भगवन् ! तैजसशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर, कालतः कितने काल का होता है ? [95 उ. गौतम ! (इसके कालत: दो प्रकारों में से) न तो अनादि-अपर्यवसित तैजसशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर है और न ही अनादि सपर्यवसित तैजसशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर है। 66. एएसि णं भंते ! जीवाणं तेयासरीरस्स देसबंधगाणं अबंधगाण य कयरे कयरेहितो जाब विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा तेयासरीरस्स प्रबंधगा, देसबंधगा अणंतगुणा / [96 प्र.] भगवन् ! तेजसशरीर के इन देशबन्धक और अबन्धक जीवों में कौन, किससे कम, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [96 उ.] गौतम ! तैजस-शरीर के प्रबन्धक जीव सबसे थोड़े हैं, उनसे देशबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। विवेचन तेजसशरीरप्रयोगबन्ध के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से विचारणा–प्रस्तुत सात सूत्रों (नू. 60 से 16 तक) में पूर्ववत् विभिन्न पहलुओं से तैजसशरीरप्रयोगबन्ध से सम्बन्धित विचारणा की गई है। तेजसशरीरप्रयोगबन्ध का स्वरूप-तैजसशरीर अनादि है, इसलिए इसका सर्वबन्ध नहीं होता। तैजसशरीरप्रयोगबन्ध अभव्यजीवों के अनादि-अपर्यवसित (अन्तरहित) होता है, जबकि भव्य जीवों के अनादि-सपर्यवसित (सान्त) होता है। तेजसशरीर सर्व संसारी जीवों के सदैव रहता है, इसलिए तैजसशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर नहीं होता / तैजसशरीर के अबन्धक केवल सिद्धजीव ही होते हैं, शेष सभी संसारी जीव इसके देशबन्धक हैं, इस दृष्टि से सबसे अल्प इसके अबन्धक बतलाए गए हैं, उनसे अनन्तगुणे देशबन्धक इसलिए बताए गए हैं, कि शेष समस्त संसारी जीव सिद्धजीवों से अनन्तगुणे हैं।' कार्मरणशरीरप्रयोगबन्ध के भेद-प्रभेदों की अपेक्षा विभिन्न दृष्टियों से निरूपए 67. कम्मासरीरप्पयोगबंधे गं भंते ! कतिविहे पणते ? गोयमा ! अविहे पण्णत्ते, तं जहा-नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे जाव अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगबंधे। [67 प्र.] भगवन् ! कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? - 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 410 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org