________________ 390] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [67 उ.] गौतम ! वह आठ प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है-ज्ञानावरणीयकार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध, यावत्-अन्तराय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध / 68. पाणावरणिज्जकम्मासरोरपयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा! नाणपडिणीययाए णाणणिण्हवणयाए गाणंतराएणं णामपदोसेणं गाणच्चासादणाए गाणविसंवादणाजोगेणं णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं गाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे। [98 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय-कार्मण-शरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [68 उ.] गौतम ! ज्ञान की प्रत्यनीकता (विपरीतता या विरोध) करने से, ज्ञान का निह्नव (अपलाप) करने से, ज्ञान में अन्तराय देने से, ज्ञान से प्रद्वेष करने (ज्ञान के दोष निकालने) से, ज्ञान को अत्यन्त प्राशातना करने से, ज्ञान के अविसंवादन-योग से, तथा ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीर प्रयोग नामकर्म के उदय से ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध होता है / 6. दरिसणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयो गबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा ! दंसणपडिणीययाए एवं जहा णाणावरणिज्ज, नवरं 'दंसग' नाम घेत्तन्वं जाव सणविसंवादणाजोगेणं दरिसणावरणिज्जफम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मरस उदएणं जाव प्पप्रोगबंधे / [99 प्र.] भगवन् ! दर्शनावरणीय-कार्मण-शरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [96-.] गौतम ! दर्शन की प्रत्यनीकता से, इत्यादि जिस प्रकार ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध के कारण कहे गए हैं, उसी प्रकार दर्शनावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध के भी कारण जानने चाहिए। विशेष अन्तर इतना ही है कि यहाँ ('ज्ञान' के स्थान में) 'दर्शन' शब्द कहना चाहिए; यावत्-'दर्शन-बिसंवादन-योग से, तथा दर्शनावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोग-नामकर्म के उदय से दर्शनावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध होता है'; यहाँ तक कहना चाहिए। 100. सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे गं भंते ! कस्स कम्मरस उदएणं? गोयमा! पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए, एवं जहा सत्तमसए दुस्समा-उ (छठ्ठ) सिए जाव अपरियावणयाए (स. 7 उ. 6 सु. 24) सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं सायावेयणिज्जकम्मा जाव पयोगबंधे / [100 प्र.] भगवन् ! सातावेदनीयकर्मशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [100 उ.] गौतम ! प्राणियों पर अनुकम्पा करने से, भूतों (चार स्थावर जीवों) पर अनुकम्पा करने से इत्यादि, जिस प्रकार (भगवतीसूत्र के) सातवें शतक के दुःषम नामक छठे उद्देशक (सू. 24) में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी, यावत्-प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को परिताप उत्पन्न न करने से तथा सातावेदनीय-कर्मशरीर-प्रयोग-नामकर्म के उदय से सातावेदनीय-कर्मशरीरप्रयोगबन्ध होता है, यहाँ तक कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org