________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [361 101. प्रस्सायावेणिज्ज पुच्छा। __ गोयमा ! परदुक्खणयाए परसोयणयाए जहा सत्तमसए दुस्समा-उ (छठ्ठ) देसए जाव परियावणयाए (स. 7 उ. 6 सु. 28) प्रस्सायावेयणिज्जकम्मा जाय पयोगबंधे / [101 प्र.] भगवन् ! असातावेदनीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [101 उ. गोतम ! दूसरे जीवों को दुःख पहुँचाने से, उन्हें शोक उत्पन्न करने से इत्यादि ; जिस प्रकार (भगवतीसूत्र के) सातवें शतक के 'दुःषम' नामक छठे उद्देशक (के सूत्र 28) में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी, यावत्-उन्हें परिताप उत्पन्न करने से तथा असाताबेदनीय-कर्म-शरीरप्रयोगनामकर्म के उदय से असातावेदनीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध होता है; यहाँ तक कहना चाहिए / 102. मोहणिज्जकम्मासरीरप्पयोग० पुच्छा। गोयमा ! तिव्वकोहयाए तिब्बमाणयाए तिब्वमायाए तिव्बलोभाए तिव्यवसणमोहणिज्जयाए तिब्वचरितमोहणिज्जयाए मोहणिज्जकम्मासरीर० जाव पयोगबंधे / [102 प्र.] भगवन् ! मोहनीय-कर्मशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [102 उ.] गौतम ! तीव्र क्रोध से, तीव्र मान से, तीव्र माया से, तीव्र लोभ से, तीन दर्शनमोहनीय से और तीव्र चारित्रमोहनीय से तथा मोहनीय कार्मणशरीरप्रयोग-नामकर्म के उदय से, मोहनीय-कार्मण-शरीर-प्रयोगबन्ध होता है / 103. नेरइयाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे जे भंते ! पुच्छा० / गोयमा ! महारंभयाए महापरिग्गयाए पंचिदियवहेणं कुणिमाहारेण नेर इयाउयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं नेरइयाउयकम्मासरीर० जाव पयोगबधे / [103 प्र.] भगवन् ! नैरयिकायुष्य-कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [१०३-उ.] गौतम ! महारम्भ करने से, महापरिग्रह से, पञ्चेन्द्रिय जीवों का वध करने से और मांसाहार करने से, तथा नैरयिकायुष्य-कार्मणशरीरप्रयोग-नामकर्म के उदय से, नैरयिकायुष्यकार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध होता है। 104. तिरिक्खजोणियाउयकम्मासरीरप्पयोग० पुच्छा / गोयमा ! माइल्लयाए नियडिल्लयाए अलियवयणेणं कूडतूल-कूडमाणेणं तिरिक्वजोणियकम्मासरीर जाव पयोगबंधे। [104 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक-प्रायुष्य-कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [104 उ.] गौतम ! माया करने से, निकृति (परवंचनार्थ चेष्टा या माया को छिपाने हेतु दूसरी गूढ़ माया) करने से, मिथ्या बोलने से, खोटा तौल और खोटा माप करने से, तथा तिर्यञ्चयोनिक-पआयुष्य-कार्मणशरीरप्रयोग-नामकर्म के उदय से तिर्यञ्चयोनिक-आयुष्य-कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org