________________ पायोसा शतक : उद्दशक 3] इसका रेखाचित्र इस प्रकार है .... पूर्ण पर्याय पालने वाले अपूर्ण पर्याय पालने वाले 10000 प्रतियोगी 6600 अनन्तवाँ भाग हीन 10000 प्रतियोगी 1800 असंख्यातवा भाग हीन 10000 प्रतियोगी 6000 संख्यातवा भाग हीन 10000 प्रतियोगी 1000 संख्यातगुण-हीन 10000 प्रतियोगी 200 असंख्यातगुण-हीन 10000 प्रतियोगी 100 अनन्तगुण-हीन जिस प्रकार षट् स्थानपतित हीन का निरूपण किया गया है, उसी प्रकार षट्स्थानपतित अधिक (वृद्धि) का भी समझना चाहिए। यह सामायिक चारित्र-पर्याय के षट्स्थानपतित का उदाहरण है। इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय ग्रादि चारित्रों पर तथा पुलाक आदि निम्रन्थों पर घटित कर लेना चाहिए।' परस्थान के साथ षट्स्थानपतित-परस्थान का अर्थ है--विजातीय / जैसे कि पुलाक, पुलाक के साथ तो सजातीय है, किन्तु बकुश आदि के साथ विजातीय है। पुलाक तथाविध विशुद्धि के अभाव से बकुश से हीन है। जिस प्रकार पुलाक को पुलाक के साथ षट्स्थानपतित कहा है, उसी प्रकार कषायकुशील की अपेक्षा भी षट्स्थानपतित समझना चाहिए / पुलाक, कषाय कुशील से अविशुद्ध संयमस्थान में रहने के कारण कदाचित् हीन भी होता है। समान-संयमस्थान में रहने पर कदाचित् समान भी होता है / अथवा शुद्धतर संयमस्थान में रहने पर कदाचित् अधिक भी होता है। पुलाक और कषायकुशील के सर्वजघन्य संयमस्थान सबसे नीचे हैं / वहाँ से वे दोनों प्रसंख्य संयमस्थानों तक साथ-साथ जाते हैं, क्योंकि वहाँ तक उन दोनों के समान प्रध्यवसाय होते हैं। तत्पश्चात् पुलाक हीनपरिणाम वाला होने से प्रागे के संयमस्थानों में नहीं जाता, किन्तु वहाँ रुक जाता है। तत्पश्चात कषायकुशील असंख्य संयमस्थानों तक ऊपर जाता है। वहाँ से कषायकशील. प्रतिसेवनाकशील और बकुश, ये तीनों साथ-साथ असंख्यसयमस्थानों तक फिर वहाँ बकुश रुक जाता है। इसके बाद प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील, ये दोनों असंख्य संयमस्थानों तक जाते हैं / वहाँ जाकर प्रतिसेवनाकुशील रुक जाता है / फिर कषायकुशील उससे मागे असंख्य संयमस्थानों तक जाता है। फिर वहाँ जाकर वह भी रुक जाता है। तदनन्तर निर्ग्रन्थ और स्नातक, ये दोनों उससे आगे एक संयमस्थान तक जाते हैं। इस प्रकार पुलाक एवं कषायकुशील के अतिरिक्त शेष सभी निग्रंथों के चारित्र-पर्यायों से अनन्तगुणहीन होता है / बकुश, पुलाक से विशुद्धतर परिणाम वाला होने से अनन्तगुण अधिक होता है। बकुश, बकुश के साथ विचित्र परिणामवाला होने से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है। प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील से भी इसी प्रकार होनादि होता है। निर्ग्रन्थ और स्नातक से तो वह हीन ही होता है। प्रतिसेवनाकुशोल की वक्तव्यता बकुश के समान है। कषायकुशील 1. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 900.901 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org