________________ चउद्दसमो : तेउक्काइय-उद्देसओ चौदहवाँ उद्देशक : तेजस्कायिक (को उत्पत्ति प्रावि-सम्बन्धी) तेजस्कायिकों में उत्पन्न होनेवाले दण्डकों में बारहवें उद्देशक के अनुसार वक्तव्यतानिर्देश 1. तेउक्काइया णं भंते ! कमोहितो उववज्जति ?. एवं पुढविकाइयउद्देसगसरिसो उद्देसो भाणितव्वो, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा। देवेहितो न उववज्जति / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति / ॥चउवीसइमे सए : चतुद्दसमो उद्देसमो समत्तो // 24-14 // [1 प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जीव, कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] यह उद्देशक भी पृथ्वीकायिक-उद्देशक की तरह कहना चाहिए। विशेष यह है कि इसकी स्थिति और संवेध (पहले से भिन्न) समझने चाहिये। तेजस्कायिक जीव देवों से पा कर उत्पन्न नहीं होते। शेष सब पूर्ववत् जानना। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर श्रीगौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन-निष्कर्ष-स्थिति और संवेध को छोड़ कर समग्न तेजस्कायिक-उद्देशक भी पृथ्वीकायिक उद्देशक के समान कहना चाहिए। विशेष—कोई भी देव च्यव कर तेजस्काय जीवों में उत्पन्न नहीं होता। तेजस्काय की स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन अहोरात्र है।' चौवीसवां शतक : चौदहवां उद्देशक सम्पूर्ण // 1. (क) वियाहपण्णत्ति सुत्तं भा. 2, पृ. 943 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 833 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org