________________ 330] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [13 उ.] गौतम ! जिस प्रकार भाषा के भेदन के विषय में कहा गया, उसी प्रकार मन के भेदन के विषय में कहना चाहिए / मन के चार प्रकार 14. कतिविधे णं भंते ! मणे पन्नत्ते? गोयमा ! चविहे मणे पन्नत्ते, तं जहा-सच्चे, जाव असच्चामोसे / [14 प्र.] भगवन् ! मन कितने प्रकार का कहा गया है ? [14 उ.] गौतम ! मन चार प्रकार का कहा गया है / यथा-(१) सत्यमन, (2) मृषामन, (3) सत्यमृषा-(मिश्र) मन और (4) असत्यामृषा (व्यवहार) मन / विवेचन-प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 10 से 14 तक) में भाषा के समान मन के विषय में शंका उठा कर उसी प्रकार समाधान किया गया है / अर्थात्-मन सम्बन्धी समस्त सूत्रों का विवेचन भाषा-सम्बन्धी सूत्रों के समान जानना चाहिए। मन : स्वरूप और उसका भेदन----मनोद्रव्य का जो समुदाय मनन-चिन्तन करने में उपकारी होता है तथा जो मनःपर्याप्ति नामकर्म के उदय से सम्पादित है, उसे मन कहते हैं / वास्तव में मन एक ही है। मन का भेदन मन का विदलन मात्र ही समझना चाहिए / वर्तमान युग की भाषा में कहा जा सकता है कि मन जब चिन्तन, मनन, स्मरण, निर्णय, निदिध्यासन, संकल्प, विकल्प आदि भिन्न-भिन्न रूप में करता है, तब उसका बिदलन होता है / ' मणिज्जमाणे : अर्थ-मनन करते हुए या मनन के समय / ' काय : प्रात्मा है या अन्य? रूपो-अरूपी है, सचित्त-अचित्त है, जीवाजीव है ? 15. प्राया भंते ! काये, अन्ने काये ? गोयमा ! प्राधा वि काये, अन्ने वि काये। [15 प्र. भगवन् ! काय (शरीर) यात्मा है, अथवा अन्य (प्रात्मा से भिन्न है ? [15 उ.] गौतम ! काय प्रात्मा भी है और आत्मा से भिन्न (अन्य) भी है। 16. रूवि भंते ! काये पुच्छा। गोयमा ! रूवि पि काये, अवि पि काये / [16 प्र. भगवन् ! काय रूपी है अथवा अरूपी ? [16 उ.] गौतम ! काय रूपी भी है और अरूपी भी है। 17. एवं सचित्ते विकाए, अचित्ते विकाए / [17) इसी प्रकार काय सचित्त भी है और अचित्त भी है / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 622 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2252 2. वही, भाग 5, पृ. 2251 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org