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________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [ 265 पृथ्वीकायिक आदि 6 कायसहित को। वे केवली भी होते हैं। अत: सकायिक सम्यग्दष्टि में पांच ज्ञान भजना से होते हैं। जो मिथ्यादृष्टि सकायिक हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से होते हैं। जो षटकायों में से किसी भी काय में नहीं हैं, या जो औदारिक आदि कायों से रहित हैं, ऐसे अकायिक जीव सिद्ध होते हैं, उनमें सिर्फ केवलज्ञान ही होता है। (4) सूक्ष्मद्वार-सूक्ष्म जीव पृथ्वीकायिकवत् मिथ्यादृष्टि होने से उन में दो अज्ञान होते हैं। बादर जीवों में केवलज्ञानी भी होते हैं, अतः सकायिक की तरह उनमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं / (5) पर्याप्तद्वार–पर्याप्तजीव केवलज्ञानी भी होते हैं, अतः उनमें सकायिक जीवों के समान भजना से 5 ज्ञान और 3 अज्ञान पाए जाते हैं। पर्याप्त नारकों में तीन ज्ञान और तीन अज्ञान नियमत: होते हैं, क्योंकि असंज्ञी जीवों में से आए हुए अपर्याप्त नारकों में ही विभंगज्ञान नहीं होता, मिथ्यात्वी पर्याप्तकों में तो होता ही है / इसी प्रकार भवनपति एवं वाणव्यन्तर देवों में समझना चाहिए / पर्याप्त विकलेन्द्रियों में नियम से दो अज्ञान होते हैं। पर्याप्त पंचेन्द्रियतिर्यंचों में 3 ज्ञान और 3 अज्ञान भजना से होते हैं, उसका कारण है, कितने ही जीवों को अवधिज्ञान या विभंगशान होता है, कितनों को नहीं होता / अपर्याप्तक नैरयिकों में तीन ज्ञान नियम से और तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं / अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय आदि जोवों में सास्वादन सम्यग्दर्शन सम्भव होने से उनमें दो ज्ञान और शेष में दो अज्ञान पाए जाते हैं। अपर्याप्त सम्यग्दृष्टि मनुष्यों में तीर्थकर प्रकृति को बाँधे हुए जीव भी होते हैं, उनमें अवधिज्ञान होना सम्भव है, अत: उनमें तीन ज्ञान भजना से पाए जाते हैं। मिथ्यादष्टि मनुष्यों को अपर्याप्त-अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता, इसलिए उनमें नियमतः दो अज्ञान होते हैं / अपर्याप्त वाणव्यन्तर देवों में जो असंज्ञी जीवों में से पाकर उत्पन्न होता है, उसमें अपर्याप्त-अवस्था में विभंगज्ञान का प्रभाव होता है, शेष में प्रवधिज्ञान या विभंगज्ञान नियम से होता है, अत: उनमें नैरयिकों के समान तीन ज्ञान वाले, या दो अथवा तीन अज्ञान वाले होते हैं। ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में संज्ञी जीवों में से ही प्राकर उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें अपर्याप्त अवस्था में भी भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान या विभंगज्ञान अवश्य होता है / अत: उनमें नियमतः तीन ज्ञान या तीन अज्ञान होते हैं। नो-पर्याप्त-नो-अपर्याप्त जीव सिद्ध होते हैं, वे पर्याप्तअपर्याप्त नामकर्म से रहित होते हैं / अतः उनमें एकमात्र केवलज्ञान ही होता है / (6) भवस्थद्वारनिरयभवस्थ का अर्थ है-नरकगति में उत्पत्तिस्थान को प्राप्त / इसी प्रकार तियं च भवस्थ आदि पदों का अर्थ समझ लेना चाहिए। निरयभवस्थ का कथन निरयगतिकवत् समझ लेना चाहिए। (7) भवसिद्धिकद्वार-भवसिद्धिक यानी भव्य जीव जो सम्यग्दृष्टि हैं, उनमें सकायिक की तरह 5 ज्ञान भजना से होते हैं, जबकि मिथ्यादृष्टि में तीन अज्ञान भजना से होते हैं। अभवसिद्धिक (अभव्य) जीव सदैव मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं, अत: उनमें तीन अज्ञान की भजना है। ज्ञान उनमें होता ही नहीं। (8) संजीद्वार-संज्ञी जीवों का कथन सेन्द्रिय जीवों की तरह है, अर्थात्- उनमें चार ज्ञान अथवा तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। असंज्ञी जीवों का कथन द्वीन्द्रिय जीवों के समान है, अर्थात्अपर्याप्त अवस्था में उनमें सास्वादन सम्यग्दर्शन की सम्भावना होने से दो ज्ञान भी पाए जाते हैं। अपर्याप्त अवस्था में तो उनमें नियमत: दो अज्ञान होते हैं।' अन्यद्वार-इससे प्रागे लब्धि आदि बारह द्वार अभी शेष हैं। लब्धिद्वार में लब्धियों के भेदप्रभेद आदि का वर्णन विस्तृत होने से इस पाठ से अलग दे रहे हैं। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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