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________________ 264 ] [ মায়ামবিল 81. नोसण्णोनोअसण्णी जहा सिद्धा (सु. 38) / 8 / [81] नो-संज्ञी-नो-असंज्ञी जीवों का कथन सिद्ध जीवों की तरह (सू. 38 के अनुसार) जानना चाहिए। (अष्टम द्वार) विवेचन-गति प्रादि पाठ द्वारों की अपेक्षा ज्ञानी-प्रज्ञानी प्ररूपणा-प्रस्तुत 43 सूत्रों (सू. 36 से 81 तक) में गति, इन्द्रिय, काय, सूक्ष्म, पर्याप्त, भवस्थ, भवसिद्धिक एवं संजी, इन आठ द्वारों के माध्यम से उन-उन गति आदि वाले जीवों में सम्भवित ज्ञान या अज्ञान की प्ररूपणा की गति प्रावि द्वारों के माध्यम से जीवों में ज्ञान-प्रज्ञान की प्ररूपणा-(१) गतिद्वार--गति की अपेक्षा पांच प्रकार के जीव हैं--नरकगतिक, तिर्यचगतिक, मनुष्यगतिक, देवगतिक और सिद्धगतिक / निरयगतिक जीव वे हैं, जो यहाँ से मर कर नरक में जाने के लिए विग्रहगति (अन्तरालगति) में चल रहे हैं / पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य, जो नरक में जाने वाले हैं, वे यदि सम्यग्दृष्टि हों तो ज्ञानी होते हैं, क्योंकि उन्हें अवधिज्ञान भवप्रत्यय होने के कारण विग्रहगति में भी होता है, और नरक में नियमतः उन्हें तीन ज्ञान होते हैं। यदि वे मिथ्यादष्टि हों तो वे अज्ञानी होते हैं, उनमें से नरकगामी यदि असंज्ञी पंचेद्रियतिथंच हो तो विग्रहगति में अपर्याप्त अवस्था तक उसे विभंगज्ञान नहीं होता, उस समय तक उसे दो अज्ञान ही होते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय नरकगामी को विग्रहगति में भी भवप्रत्ययिक विभंगज्ञान होता है, इसलिए निरयगतिक में तीन अज्ञान भजना से कहे गए हैं। तिर्यंचगतिक जीव वे हैं जो यहाँ से मर कर तिर्यंचगति में जाने के लिए विग्रहगति में चल रहे हैं। उनमें नियम से दो ज्ञान या दो अज्ञान इसलिए बताए हैं कि सम्यग्दष्टि जीव अवधिज्ञान ने के बाद मति-श्रुतज्ञानसहित तिर्यंचगति में जाता है। इसलिए उसमें नियमतः दो ज्ञान होते हैं, तथा मिथ्यादष्टि जीव विभंगज्ञान से गिरने के बाद मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञानसहित तिर्यंचगति में जाता है। इसलिए नियमतः उसमें दो अज्ञान होते हैं। मनुष्यगति में जाने के लिए जो विग्रहगति में चल रहे हैं, वे मनुष्यगतिक कहलाते हैं। मनुष्यगति में जाते हुए जो जीव ज्ञानी होते हैं, उनमें से कई तीर्थकर की तरह अवधिज्ञानसहित मनुष्यगति में जाते हैं, उनमें तीन ज्ञान होते हैं, जबकि अवधिज्ञानरहित मनुष्यगति में जाने वालों में दो ज्ञान होते हैं। इसीलिए यहाँ तीन ज्ञान भजना से कहे गए हैं / जो मिथ्यादृष्टि हैं, वे विभंगज्ञानरहित ही मनुष्यगति में उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें दो अज्ञान नियम से कहे गए हैं / देवगति में जाते हुए विग्रहगति में चल रहे जीवों का कथन नैरयिकों की तरह (नियमतः तीन ज्ञान अथवा भजना से तीन अज्ञान वाले) समझना चाहिए। सिद्धगतिक जीवों में तो केवल एक ही ज्ञान--केवलज्ञान होता है। (2) इन्द्रियद्वार-सेन्द्रिय का अर्थ है-इन्द्रिय वाले जीव-यानी इन्द्रियों से काम लेने वाले जीव / सेन्द्रिय ज्ञानी जीवों को 2, 3, या 4 ज्ञान होते हैं; यह बात लब्धि की अपेक्षा से समझना चाहिए क्योंकि उपयोग की अपेक्षा तो सभी जीवों को एक समय में एक ही ज्ञान होता है। केवलज्ञान अतीन्द्रिय ज्ञान है, वह सेन्द्रिय नहीं है। अज्ञानी सेन्द्रिय जीवों को तीन अज्ञान भजना से होते हैं. किन्हीं को दो और किन्हीं को तीन अज्ञान होते हैं। एकेन्द्रिय जीव मिथ्यादृष्टि होने से अज्ञानी ही होते हैं, उनमें नियमतः दो अज्ञान होते हैं। तीन विकलेन्द्रियों में दो अज्ञान तो नियमतः होते हैं, किन्तु सास्वादनगुणस्थान होने की अवस्था में दो ज्ञान भी होने सम्भव हैं / अनिन्द्रिय (इन्द्रियों के उपयोग से रहित) जीव तो केवलज्ञानी ही होते हैं। उनमें एकमात्र केवलज्ञान पाया जाता है। (3) कायद्वार--सकायिक कहते हैं-औदारिक आदि शरीरयुक्त जीव को अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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