________________ तइयादि-एगारसम-पज्जंता उद्देसगा तीसरे से लेकर ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त छब्बीसवें शतक के तृतीय से ग्यारहवें उद्देशकानुसार पापकर्मसमर्जन-प्ररूपरणा 1. एवं एएणं कमेणं जहेव बंधिसते उद्देस गाणं परिवाडी तहेव इहं पि अट्टस भंगेस नेयम्वा / मवरं जाणियव्वं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियन्वं जाय अचरिमुद्देसो। सव्वे वि एए एक्कारस उद्देसगा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ / // अट्ठावीसइमे सए : तझ्याइ-एक्कारस-उद्देसगा समत्ता / / 28 / 3-11 // // अट्ठावीसइमं पापकम्म-समज्जण-सयं समत्तं // [2] जिस प्रकार 'बन्धीशतक' में उद्देशकों की परिपाटी कही है, उसी क्रम से, उसी प्रकार यहाँ भी पाठों ही भंगों में जाननी चाहिए / विशेष यह है कि जिसमें जो बोल सम्भव हों, उसमें वे ही बोल यावत् अचरम उद्देशक तक कहने चाहिए / इस प्रकार ये सब ग्यारह उद्देशक (पूर्ववत्) हुए / __हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-ग्यारह उद्देशक तक बन्धीशतक का अतिदेश-बन्धी शतक में तीसरे से लेकर ग्यारहवें उद्देशक तक जिस क्रम से जो भी प्रश्नोत्तर अंकित हुए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी तीसरे से ग्यारहवें उद्देशक तक कहना चाहिए। इतना अवश्य विवेक करना चाहिए कि जिसमें जो बोल सम्भव हो, वही कहना चाहिए, अन्य नहीं। // अट्ठाईसौं शतक : तीसरे से ग्यारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण / / / अट्ठाईसवाँ शतक समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org