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________________ अठारहवाँ शतक : उद्देशक 8] [731 12. तए णं ते अन्नउस्थिया भगवं गोयमं एवं वदासि-केणं कारणं अज्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव भवामो? [12] इस पर वे अन्यतीथिक भगवान् गौतम से इस प्रकार बोले- आर्य ! किस कारण से हम त्रिविध-त्रिविध से यावत् एकान्त बाल हैं ? 13. तए णं भगवं गोयमे ते अन्नउथिए एवं वयासि-तुम्भे गं अज्जो ! रोयं रोयमाणा पाणे पेच्नेह जाय उवद्दवेह / तए णं तुम्भे पाणे पेच्चेमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहं जाव एगंतबाला यावि मवह। [13] तब भगवान् गौतम स्वामी ने उन अन्यतोथिको से इस प्रकार कहा-हे अार्यो ! तुम चलते हुए प्राणियों को प्राक्रान्त करते हो, यावत् पोडित करते हो। जोवों को प्राक्रान्त करते हुए यावत् पीडित करते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध से असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो। 14. तए णं भगवं गोयमे ते अन्न उत्थिए एवं पडिहणइ, प० 2 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उ० 2 समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 गच्चासन्ने जाव पज्जुवासति / [14] इस प्रकार गौतम स्वामी ने उन अन्यतोथिकों को निरुत्तर कर दिया। तत्पश्चात् गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर के समीप पहुँचे और उन्हें वन्दना-नमस्कार करके न तो अत्यन्त दूर और न अतीव निकट यावत् पर्युपासना करने लगे / 15. 'गोयमा !' ई समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासि—सुट्ठ णं तुमं गोयमा ! ते अन्नउस्थिए एवं वयासि, साहु णं तुमं गोयमा! ते अन्नउत्थिए एवं वदासि, अत्थि णं गोयमा ! ममं बहये अंतेवासी समगा निग्गंथा छउमत्था जे णं नो पभू एयं वागरणं वागरेत्तए जहा णं तुम, तं सुछ गं तुमं गोयमा ! ते अन्न उत्थिए एवं क्यासि, साहु णं तुमं गोयमा ! ते अन्नउस्थिए एवं वदासि / [15] 'गौतम !' इस नाम से सम्बोधित कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने भगवान् गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा-हे गौतम ! तुमने उन अन्यतोथिकों को अच्छा कहा, तुमने उन अन्यतीथिकों को यथार्थ कहा। गौतम ! मेरे बहुत-से शिष्य श्रमण निर्ग्रन्थ छमस्थ हैं, जो तुम्हारे समान उत्तर देने में समर्थ नहीं हैं। जैसा कि तुमने उन अन्यतीथिकों को ठीक कहा; उन अन्यतीथिकों को बहुत ठीक कहा / विवेचन----'कायं च जोयं च रीयं च पडुच्च विस्स ......"क्यामो' : तात्पर्य-गौतम स्वामी ने उन अन्यतीथिकों के प्राक्षेप का उत्तर देते हुए कहा कि हम प्राणियों को कुचलते, मारते या पीड़ित करते हुए नहीं चलते, क्योंकि हम (कार्य) शरीर को देख कर चलते हैं, अर्थात्-शरीर स्वस्थ हो, सशक्त हो, चलने में समर्थ हो, तभी चलते हैं, तथा हम नंगे पैर चलते हैं, किसी वाहन का उपयोग नहीं करते, इसलिए किसी भी जोव को कुचलते-दबाते या मारते नहीं। फिर हम योग-अर्थात्संयमयोग को अपेक्षा से ही गमन करते हैं। ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि के प्रयोजन से ही गमन करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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