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________________ 732] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र हैं, गोचरी आदि जाना हो, ग्रामानुग्राम विहार करना हो, या दया या सेवा का कोई कार्य हो, तभी चलते हैं, विना प्रयोजन गमन नहीं करते। और चलते समय भी चपलता, हड़बड़ी और शीघ्रता से रहित ईर्यापथशोधनपूर्वक दांये-बाए, आगे-पीछे देख कर चलते हैं। कठिन शब्दार्थ पेच्चेह-कुचलते हो, अभिहणह-मारते हो, टकराते हो, उबद्दवेह-पीडित करते हो। दिस्स दिस्स-देख-देख कर / पदिस्त पदिस्स-विशेष रूप से देख कर / छमस्थ मनुष्य द्वारा परमाणु द्विप्रदेशिकादि स्कन्ध को जानने और देखने के सम्बन्ध में प्ररूपणा 16. तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवता महावीरेणं एवं वृत्ते समाणे हद्वतुट्ठ समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 एवं वदासि-छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से परमाणुपोग्गलं कि जाणइ पासइ, उदाहु न जाणइ न पासइ ? गोयमा ! प्रत्थेगतिए जाणति, न पाति; अत्थेगतिए न जाणति, न पासति / 16 प्र.] तत्पश्चात श्रमण भगवान महावीर के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हृष्ट-तुष्ट होकर भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को बन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार पूछा भगवन् ! क्या छमस्थ मनुष्य परमाणु-पुद्गल को जानता-देखता है अथवा नहीं जानतानहीं देखता? [16 उ.] गौतम ! कोई (छद्मस्थ मनुष्य) जानता है, किन्तु देखता नहीं, और कोई जानता भी नहीं और देखता भी नहीं। 17. छउमत्थे णं भंते ! मसे दुपएसियं खधं कि जाणति पासइ ? एवं चेव। [17 प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य द्विप्रदेशी स्कन्ध को जानता-देखता है, अथवा नहीं जानता, नहीं देखता? [17 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना चाहिए / 18. एवं जाव असंखेज्जपएसियं / [18] इसी प्रकार यावत् असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध तक (को जानने देखने के विषय में) कहना चाहिए। 1. (क) भगववती. अ. वत्ति, पत्र 755 (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्द जी) भा. 6, पृ. 2740 2. (क) वहीं, भा. 6, पृ. 2738-2739 (ख) भगवती. अ, बत्ति, पत्र 755 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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