________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [221 [2] जे पज्जत्तासुहुमपुढवि० एवं चेव / [38-2] जो पुद्गल पर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं, उन्हें भी इसी प्रकार वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-संस्थानरूप में परिणत जानना चाहिए। 36. एवं जहाऽऽणुपुवीए नेयम्वं जाव जे पज्जत्तासम्वसिद्धप्रणुत्तरोवधाइय जाव परिणता ते वणतो कालवण्णपरिणया वि जाव प्रायतसंठाणपरिणया वि / दंडगा 6 / [39] इसी प्रकार क्रमशः सभी (पूर्वोक्त विशेषण-विशिष्ट जीवों के प्रयोग-परिणत पुद्गलों) के विषय में जानना चाहिए। यावत् जो पुद्गल पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक देवपंचेन्द्रिय-वैक्रिय-तैजस-कार्मण-शरीरप्रयोगपरिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण रूप में यावत् संस्थान से पायत संस्थान तक परिणत हैं। सप्तम दण्डक 40. [1] जे अपज्जत्तासुहमपुढवि. एगिदियोरालिय-तेया-कम्मासरीरप्पयोगपरिणया ते वण्णमो कालवण्णपरि० जाव आययसंठाणपरि० वि / [40-1] जो पुद्गल अपर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-तैजस-कार्मणशरीर-प्रयोग परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में भी परिणत हैं, यावत् आयत-संस्थान-रूप में भी परिणत हैं। [2] जे पज्जतासुहुमपुढवि० एवं चेव / [[40-2] इसी प्रकार पर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-तैजस-कार्मणशरीरप्रयोग-परिणत हैं, वे भी इसी तरह वर्णादि-परिणत हैं। 41. एवं जहाऽऽणुपुधीए नेयव्वं जस्स जति सरीराणि जाच जे पज्जत्तासबट्टसिद्धप्रणुत्तरोदवाइयदेवचिदियवेडविय-तेया-कम्मासरीर जाव परिणया ते वण्णो कालवण्णपरिणया वि जाव प्रायतसंठाणपरिणया वि / दंडगा 7 // [41] इस प्रकार यथानुक्रम से (सभी जीवों के विषय में जानना चाहिए। जिसके जितने शरीर हों, उतने कहने चाहिए; यावत् जो पुद्गल पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध अनुसरौपपातिक देव-पंचेन्द्रियवैक्रिय-तैजस-कार्मण-शरीर प्रयोग परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में, यावत् संस्थान से आयतसंस्थानरूप में परिणत हैं / अष्टम दण्डक 42. [1] जे अपज्जत्तासुहमपुढविकाइयएगिदिवफासिदियपयोगपरिणया ते बण्णो कालवण्णपरिणया जाव प्राययसंठाणपरिणया वि। [42-1] जो पुद्गल अपर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में परिणत हैं, यावत् संस्थान से आयत-संस्थान के रूप में परिणत हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org