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________________ 284] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बालतपस्वी तामली द्वारा पादपोपगमन-अनशन ग्रहरण 36. तए णं से तामलो मोरियपुत्ते तेगं पोरालेणं विपुलेणं पयत्तेणं पाहिएणं बालतवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे जाव' धमणि संतते जाए यावि होत्था / [39] तत्पश्चात् वह मौर्यपुत्र तामली तापस उस उदार, विपुल, प्रदत्त और प्रग्रहीत बाल (अज्ञान) तप द्वारा (अत्यन्त) सूख (शुष्क हो) गया, रूक्ष हो गया, यावत् (इतना दुर्बल हो गया कि) उसके समस्त नाड़ियों का जाल बाहर दिखाई देने लगा। 40. तए णं तस्स तामलिस्स बालतवस्सिस्स अन्नया कयाइ पुश्वरत्तावरत्तकालसमयसि प्रणिच्चजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए चितिए जाव समुप्पजित्था—'एवं खलु अहं इमेणं अोरालेणं विपुलेणं जाव' उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे जाव धमणिसंतते जाते, तं अस्थि जा में उठाणे कम्मे बले वोरिए पुरिसक्कारपरक्कमे तावता मे सेयं कल्लं जाव जलते तामलित्तीए नगरीए दिवाभीय पासंडत्थे य गिहत्थे य युवसंगतिए य परियायसंगतिए य प्रापुच्छित्ता तामलित्तीए नगरीए मज्झमझेगं निग्गच्छित्ता पाउग्गं कुण्डियमादीयं उवकरणं दारुमयं च पडिग्गहयं एगंते एडित्ता तामलित्तीए नगरीए उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए णियत्तणियमंडल प्रालिहिता संलेहणाभूसणाभूसियस्स भत्त-पाणपडियाइक्खियस्स पायोवग्यस्त कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए ति कटु एवं संपेहेइ / एवं संपेहेत्ता कल्लं जाव जलते जाव प्रापुच्छइ, 2 तामलित्तीए एगते एडेइ जाव भत्त-पाणपडियाइपिखए पापोवगमणं निवन्ने / [40] तदनन्तर किसी एक दिन पूर्वरात्रि व्यतीत होने के बाद अपररात्रिकाल के समय अनित्य जागरिका अर्थात् संसार, शरीर आदि की क्षणभंगुरता का विचार करते हुए उस बालतपस्वी तामली को इस प्रकार का आध्यात्मिक चिन्तन यावत मनोगत संकल्प उत्पन्न हा कि 'मैं इस उदार, विपुल यावत् उदन, उदात्त, उत्तम और महाप्रभावशाली तपःकर्म करने से शुष्क और रूक्ष हो गया हूँ, यावत् मेरा शरीर इतना कृश हो गया है कि नाड़ियों का जाल बाहर दिखाई देने लग गया है / इसलिए जब तक मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम है, तब तक मेरे लिए (यही) श्रेयस्कर है कि कल प्रात:काल यावत् जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर मैं ताम्रलिप्ती नगरी में जाऊँ। वहाँ जो दृष्टभाषित (जिनको पहले गृहस्थावस्था में देखा है, जिनके साथ भाषण किया है) व्यक्ति हैं, जो पाषण्ड (वतों में) स्थित हैं, या जो गृहस्थ हैं, जो पूर्वपरिचित (गृहस्थावस्था के परिचित) हैं, या जो पश्चात्परिचित (तापसजीवन में परिचय में प्राए हुए) हैं, तथा जो समकालीन प्रव्रज्या(दीक्षा) पर्याय से युक्त पुरुष हैं, उनसे पूछकर (विचार-विनिमय करके), ताम्रलिप्ती नगरी के बीचोंबीच से निकलकर पादुका (खड़ाऊं), कुण्डी आदि उपकरणों तथा काष्ठ-पात्र को एकान्त में 1. यहाँ 'जाव' शब्द से ....... 'भुक्खे, निम्मंसे निस्सोणिए किडिकिउियाभूए अढि चम्मावणद्ध किसे' यह पाठ जानना चाहिए। 'जाव' पद से 'सस्सिरीएणं पयत्तणं पग्गहिएणं, कल्लाणेणं सिबेणं धन्नेगं मंगलेणं' इस पाठ का ग्रहण करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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