________________ तृतीयं शतक : उद्देशक-१] [283 सिव वा वेसमणं वा प्रज्ज वा कोट्टकिरियं वा राजं वा जाव सत्थवाहं वा काग वा साणं वा पाणं वा उच्चं पासइ उच्चं पणामं करेति, नीयं पासइ नीयं पणामं करेइ, जं जहा पासति तस्स तहा पणामं करेइ / से तेण?णं जाव पव्वज्जा / [38 प्र.] भगवन् ! तामली द्वारा ग्रहण की हुई प्रव्रज्या 'प्राणामा' कहलाती है, इसका क्या कारण है ? [38 उ.] हे गौतम ! प्राणामा प्रव्रज्या में प्रवजित होने पर वह (प्रवजित) व्यक्ति जिसे जहाँ देखता है, (उसे वहीं प्रणाम करता है / ) (अर्थात्-) इन्द्र को, स्कन्द (कातिकेय) को, रुद्र (महादेव) को, शिव (शंकर या किसो व्यन्तरविशेष) को, वैश्रमण (कुबेर) को, आर्या (प्रशान्त रूपा पार्वती) को, रौद्ररूपा चण्डिका (महिषासुरमदिनी चण्डी) को, राजा को, यावत् सार्थवाह को, (अर्थात्-राजा, युवराज, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी एवं सार्थवाह बनजारे को) अथवा कौआ, कुत्ता और श्वपाक = चाण्डाल (आदि सबको प्रणाम करता है।) इनमें से उच्च व्यक्ति को देखता है, उच्च-रीति से प्रणाम करता है, नीच को देखकर नीची रीति से प्रणाम करता है। (अर्थात- जिसे जिस रूप में देखता है, उसे उसी रूप में प्रणाम करता है। इस कारण हे गीत इस प्रव्रज्या का नाम 'प्राणामा' प्रवज्या है। विवेचन–प्रवज्या का नाम 'प्राणामा' रखने का कारण प्रस्तुत सूत्र में तामली गृहपति द्वारा गृहीत प्रव्रज्या को प्राणामा कहने का आशय व्यक्त किया गया है। 'प्राणामा का शब्दशः अर्थ-भी यह होता है जिसमें प्रत्येक प्राणी को यथायोग्य प्रणाम करने की क्रिया विहित हो।' कठिन शब्दों के अर्थ-वेसमणं - उत्तरदिग्पाल-कुबेरदेव / कोट्टकिरियं = महिषासुर को पीटने (कटने की क्रिया वाली चण्डिका। उच्च पूज्य को, नीयं अपूज्य को, उच्चं पणाम - अतिशय प्रणाम, नीयं पणाम अत्यधिक प्रणाम नहीं करता / 1. वर्तमान में भी वैदिक सम्प्रदाय में 'प्राणामा' प्रव्रज्या प्रचलित है। इस प्रकार की प्रवज्या में दीक्षित हए एक सज्जन के सम्बन्ध में 'सरस्वती' (मासिक पत्रिका भाग 13, अंक 1, पृष्ठ 180) में इस प्रकार के समाचार प्रकाशित हुए हैं"..."इसके बाद सब प्राणियों में भगवान की भावना दृढ़ करने और अहंकार छोड़ने के इरादे से प्राणिमात्र को ईश्वर समझकर आपने साष्टांग प्रणाम करना शुरू किया। जिस प्राणी को पाप आगे देखते, उसी के सामने अपने पैरों पर आप जमीन पर लेट जाते / इस प्रकार ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक और गौ से लेकर गधे तक को श्राप साष्टांग नमस्कार करने लगे।" प्रस्तुत शास्त्र में उल्लिखित 'प्राणामा' प्रव्रज्या और 'सरस्वती' में प्रकाशित उपर्युक्त घटना, दोनों की प्रवृत्ति समान प्रतीत होती है। किन्तु ऐसी प्रवृत्ति सम्यग्ज्ञान के प्रभाव की सूचक है / -भगवती विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 2, पृ. 594 से 2. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्रांक 164 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org