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________________ 170] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (यत्किचित् रूप में, मन से भी) भोगने में समर्थ है / इसलिए वह भोगी भोगों का (मन से) परित्याग करता हुआ ही महानिर्जरा और महापर्यवसान (महान् शुभ अन्त) वाला होता है। 21. प्राहोहिए णं भंते ! मणुस्ते जे भविए अन्नयरेसु देवलोएसु०, / एवं चेव जहा छउमत्थे जाव महापज्जवसाणे भवति / [21 प्र.] भगवन् ! ऐसा अधोऽवधिक (नियत क्षेत्र का अवधिज्ञानी) मनुष्य, जो किसी देवलोक में उत्पन्न होने योग्य है, क्या वह क्षीणभोगी उत्थान यावत् पुरुषकारपराक्रम द्वारा विपुल एवं भोग्य भोगों को भोगने में समर्थ है ? [21 उ.] (हे गौतम ! )......." इसके विषय में उपर्युक्त छद्मस्थ के समान ही कथन जान लेना चाहिए; यावत् (भोगों का परित्याग करता हुआ ही वह महानिर्जरा और) महापर्यवसान वाला होता है। 22. परमाहोहिए णं भंते ! मणुस्से जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए जाव अंतं करेत्तए, से नणं भंते ! से खीण मोगी। सेसं जहा छउमथस्स। [22 प्र.] भगवन् ! ऐसा परमावधिक (परम अवधिज्ञानी) मनुष्य जो उसी भवग्रहण से (जन्म में) सिद्ध होने वाला यावत् सर्व-दुःखों का अन्त करने वाला है, क्या वह क्षीणभोगी यावत् भोगने योग्य विपुल भोगों को भोगने में समर्थ है ? [22 उ.] (हे गौतम ! ) इसका उत्तर भी छद्मस्थ के लिये दिये हुए उत्तर के समान समझना चाहिए। 23. केवली गं भंते ! मणूसे जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं० / एवं चेव जहा परमाहोहिए जाव महापज्जवसाणे भवति / [23 प्र.] भगवन् ! केवलज्ञानी मनुष्य भी, जो उसी भव में सिद्ध होने वाला है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करने वाला है, क्या वह विपुल और भोग्य भोगों को भोगने में समर्थ है ? [24 उ. (हे गौतम !) इसका कथन भी परमावधिज्ञानी की तरह करना चाहिए, या यावत् वह महानिर्जरा और महापर्यवसान बाला होता है। विवेचन-क्षीणभोगी छमस्थ, अधोंऽवधिक, परमावधिक, एवं केवली मनुष्यों में भोगित्वप्ररूपणा–प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 20 से 23 तक) में अन्तिम समय में क्षीणदेह छद्मस्थादि मनुष्य भोग भोगने में असमर्थ होने से भोगी कैसे कहे जा सकते हैं ? इस प्रश्न का सिद्धान्तसम्मत समाधान प्रतिपादित किया गया है। भोग भोगने में असमर्थ होने से ही भोगत्यागी नहीं-भोग भोगने का साधन शरीर होने से उसे यहाँ भोगी कहा गया है। तपस्या या रोगादि से जिसका शरीर अशक्त और क्षीण हो गया है, उसे 'क्षीणभोगी' कहते हैं। देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होने वाला छद्मस्थ मनुष्य मरणासन्न अवस्था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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